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पांचवीं शताब्दी से आठवीं शताब्दी के आचार्य
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धनंजय कविका द्विसन्धान काव्य संस्कृत साहित्य में उपलब्ध द्विसन्धान काव्यों में प्राचीन और महत्वपूर्ण काव्य है। इसके प्रत्येक पद्य दो अर्थों को प्रस्तुत करते हैं। पहला अर्थ रामायण से सम्बद्ध है और दूसरा अर्थ महाभारत से । इसी कारण इसे राघव पाण्डवीय भी कहा जाता है। ग्रन्थ में १८ सर्ग और पाठ सौ श्लोक हैं। यह इन्द्रवजा, उपजाति, द्रुतविलम्बित, पुष्पिताग्रा, मालिनी, मन्दाक्रान्ता, रथोद्धता, वसन्ततिलका और शिखरिणी आदि विविध छन्दों में रचा गया है। ग्रन्थगत कथानक संक्षिप्त और सुरु चिपूर्ण है। इस ग्रन्थ पर दो टीकाएँ उपलब्ध हैं जिनमें एक का नाम 'पदकौमुदी' है जिसके कर्ता नेमिचन्द्र हैं, जो पद्मनन्दि के प्रशिष्य और विनयचन्द्र के शिष्य थे। दूसरी टीका राघव पाण्डवीय प्रकाशिका है, जिसके कर्ता परवादि घरदृ रामभट्ट के पुत्र कवि देवर हैं। दोनों टीकाएँ आरा जैन सिद्धान्त भवन में मौजूद हैं।
काव्य मीमांसा के कर्ता राजशेखर ने धनंजय कवि की बडी प्रशंसा की हैं। राजशेखर प्रतिहार राजा महेन्द्रपाल के उपाध्याय थे।
वादिराज ने १०२५ ई० में लिखे गये अपने पार्श्वनाथ चरित्र में धनंजय तथा एक से अधिक सन्धान में उनकी प्रवीणता का उल्लेख किया है :
अनेक भेदसंधाना खनन्तो हृदये मुहुः।
बाणा धनंजयोन्मुक्ताः कर्णस्येव प्रियाः कथम् ॥ कवि की दूसरी कृति 'धनंजय' नाममाला नाम का छोटा-सा दो सौ पद्यों का एक बहुत ही महत्वपूर्ण शब्द कोष है ' इसके साथ में ४६ पद्यों की एक अनेकार्थ नाममाला भी जुड़ी हुई है। कोष में १७०० शब्दों के अर्थ दिये गये हैं। इस छोटे से कोष में संस्कृत भाषा की आवश्यक पदावली का चयन किया गया है। कोष की सबसे बडी विशेषता शब्द से शब्दान्तर बनाने की प्रक्रिया है जो अन्यत्र देखने में नहीं आई। जैसे पृथ्वी के आगे 'धर' शब्द जोड़ देने से पर्वत के नाम हो जाते हैं। और राजा के नामों के आगे 'रुह' शब्द जोड़ने मे वृक्ष के नाम हो जाते हैं। इस पर अमरकीति विद्य का नाम माला भाष्य है, जो भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित हो चुका है।
इनकी तीसरी कृति 'विषापहार स्तोत्र' है जो ३६ इन्द्रवजा वृत्तों का स्तुति ग्रन्थ है। इसमें आदि ब्रह्या अषभदेव का स्तवन किया गया है। यह स्तवन अपनी प्रौढता, गम्भीरता और अनठी उक्तियों के लिये प्रसिद्ध है। इस पर अनेक संस्कृत टीकाएं मिलती हैं, जिनमें सोलहवों शताब्दी के विद्वान पार्श्वनाथ के पुत्र नागचन्द्र की है, दूसरी टीका चन्द्रकीर्ति की है।
___ अगाधताब्धेः स यतः पयोधिमेरोश्च तुङ्गाः प्रकृतिः स यत्र ।
द्यावा पृथिव्योः पृथुता तथैव, व्यापत्वदीया भुवनान्तराणि ।। इस पद्य में कवि ने ऋषभ देव की गम्भीरता समुद्र के समान, उन्नत प्रकृति मेरु के समान और विशालता अाकाश-पृथ्वी के समान बतलाकर उनकी लोकोत्तर महिमा का चित्रण किया है ।
१६वें पद्य में कवि ने भगवान की तुङ्ग प्रकृति का बड़ा सुन्दर चित्रण किया है । और आराध्य देव के औदार्य का विश्लेषण करते हए कवि कहता है कि हे प्रभो! आप भक्तों को सभी पदार्थ प्रदान करते हैं। उदार चित्तवाले दरिद्र मनुष्य से भी जो फल प्राप्त होता है, वह सम्पत्ति शाली कृपण धनाढ्यों से नहीं । क्योंकि पानी से शून्य
१. द्विसन्धाने निपुणता सतां चके धनंजयः । यया जातं फलं तस्य सतां चक्र धनंजयः ।।
-राजशेखर २. कवेर्धनं जयस्येयं सत्कवीनां शिरोमणेः ।
प्रमाण नाममालेति श्लोकानामहि शतद्वयम् ।।२०२॥