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ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य
२८७ यह देवसेन माथुरसंघ के यतियों में अग्रणी थे। जिस प्रकार सूर्य पदार्थो को प्रकाशित करता है और प्रदोषा (रात्रि) को नष्ट करता है, कमलों को विकसित करता है, उसी प्रकार आचार्य देवसेन वस्तु स्वरूप को प्रकाशित करने और प्रकृष्ट दोषों से रहित हुए भव्य रूप कमलों को प्रमुदित करते थे। जैसा कि निम्न पद्य से स्पष्ट है :
श्री देवसेनोऽजनि माथुराणां गणी यतीनां विहित प्रमोदः ।
तत्त्वावभासी निहतप्रदोषः सरोरुहाणामिव तिग्मरश्मिः ॥ ____ इससे यह देवमेन माथुरसंघ के प्रभावशाली विद्वान थे । इनके शिष्य अमितगति प्रथम थे। जिन्होंने योगसार की रचना की है। इनका समय वि० को दशवी शताब्दी है। क्योंकि इनमे ५वी पीढ़ी में अमितगति द्वितीय हुए हैं, जिनका रचना काल सं० १०५० से १०७३ है। इसमें से चार पीढ़ी का ८० वर्ष समय कम करने से सं० ६६३ प्राता है । यही देवसेनका समय है।
नेमिषेण यह माथरसंघ के विद्वान अमितगति प्रथम के शिष्य थे। समस्त शास्त्रो के जानकार और शिष्यों में अग्रणी थे, तथा माथरमंघ के तिलक स्वरूप थे। जैसा कि सुभाषितरत्नसन्दोह को प्रशस्ति के निम्न पद्य से प्रकट है :
तस्यज्ञात समस्त शास्त्र समयः शिष्यः सतामग्रणी: ।
श्रीमन्माथुरसंघसाधुतिलकः श्रीनेमिषेणो भवतः ॥ उक्त नेमिषेणाचार्य माथुरसम्प्रदाय रूप आकाश में प्रकाश करने वाले चन्द्रमा के समान, तथा अर्हन्त भाषित तत्वों में शंका के विनाशक और विद्वत्समूह रूप शिष्यों मे पूजित थे । जैसा कि श्रावकाचार के निम्न पद्य से स्पष्ट है
विद्वत्सम हाचित चित्र शिष्यः श्री नेमिषेणोऽजनि तस्य शिष्यः ।
श्री माथुरानूक नभः शशांकः सदा विधूताऽऽर्हत तत्त्व शंकः ॥ पाराधना प्रशस्ति में भी इन्हें सर्व शास्त्ररूपी जलराशिके पारको प्राप्त होने वाले, लोकके, अंधकार के विनाशक और शीतरश्मि के समान जनप्रिय बतलाया है।
सर्वशास्त्रजलराशिपारगो नेमिषेण मूनि नायकस्ततः।
सोजनिष्ट भवने तमोपहः शीतरश्मिरिव यो जन प्रियः॥ इनके शिष्य माधवसेन थे, जो अमितगति द्वितीय के गुरु थे । चुंकि अमितगति द्वितीय का समय सं० १०५० सं १०७३ तक सुनिश्चत है । इनका समय सं १०११ के लगभग होना चाहिये।
माधवसेन माधवसेन नामके अनेक विद्वान हो गए हैं। उनमें प्रस्तुत माधवसेन माथरसंघ के प्राचार्य नेमिषेण के शिष्य थे। मुनियों के स्वामी, माया के विनाशक और मदन को नष्ट करने वाले ब्रह्मचारी थे। और वृहस्पति के
१ एक माधवसेन भट्टारक मूनसंघ सेनगण और पोगग्गिच्छ के चन्द्रप्रभ सिद्धान्त देव के शिष्य थे । इन्होंने सन ११२४ ई० में पंच परमेष्ठी का स्मरण कर ममाधि मरण द्वारा शरीर का परित्याग किया था। (जैन लेख स० भा० २ १० ४३७)
दूसरे माधवसेन प्रतापसेन के पट्टधर थे । इनका समय विक्रम की १३ वी १४ वी शताब्दी है।
तीसरे माधवसेन वे हैं जिन्हें लोक्कियवसदि के लिये, देकररसने जम्बहल्लि को प्रदान किया था। यह लेख शक वर्ष ९८४ (सन् १०६२ ई०) का है। चौथे माधवसेन सूरि वे हैं जिनका स्मरण पद्मप्रभमलधारिदेव ने निम्न पद्य द्वारा किया है :
नमोऽस्तु ते मंयमबोधमूर्तये, स्मरेभक भरथलभेदनाय वै । विनेय पंकेरुहविकास भानवे, विराजते माधवसेनसूरये ।।
-(नियमसार टी० पृ० ६३)