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श्रन्त
समस्त सन्देहहरं मनोहरं प्रकृष्टपुण्यप्रभवम् जिनेश्वम् । कृतं पुराणे प्रथमे सुटिप्पणं मुखावबोधं निखिलार्थ दर्पणम् ॥
इति श्रीप्रभाचन्द्र विरचितमादिपुराण टिप्पणकम् पंचासश्लोक हीनं सहस्रद्वयपरिमाणं परिसमाप्ता ॥ उत्तर पुराण टिप्पण का अन्तिम पुष्पिका वाक्य निम्न प्रकार है।
श्री जर्यासह देव राज्ये श्रीमद्धारानिवासिनः परापरपरमेष्ठि प्रणामोपा जितामल पुण्य निराकृता खिल कलंकेन श्री प्रभाचन्द पंडितेन महापुराण टिप्पणके शतत्र्यधिक सहस्रत्रय परिमाणं कृति मिति । पाटोदी मन्दिर जयपुर प्रति क्रियाकलाप टीका - श्री पंडित प्रभाचन्द्र के द्वारा रची गई है। जैसा कि ऐ० पन्ना लाल सरस्वति भवन बम्बई की हस्त लिखित प्रति की अन्तिम प्रशस्ति से स्पष्ट है। :―
वन्दे मोहतमो विनाशनपटुस्त्रैलोक्य दीप प्रभुः । संसृतिसमन्वितस्य निखिल स्नेहस्य संशोषकः । सिद्धान्तादिसमस्तशास्त्र किरणः श्री पद्मर्नान्द प्रभुः । छियात्प्रकटार्थतां स्तुति पदं प्राप्तं प्रभाचन्द्रतः ॥
इस प्रशस्ति पद्य से स्पष्ट है कि क्रियाकलाप के टीकाकार पद्मनन्दि सैद्धान्तिक के शिष्य थे ।
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २
इनके अतिरिक्त समाधितंत्र टीका, रत्नकरण्ड टीका, आत्मानुशासन तिलक टीका, स्वयंभू स्तोत्र टीका पंचास्तिकाय प्रदीप, प्रवचनसार टीका को प्रति टोडारायसिंह के नेमिनाथ मन्दिर में सं० १६०५ की लिखी हुई मौजूद है इसकी यह जाँच करना आवश्यक है यह टीका प्रवचन सरोज भास्कर से भिन्न है या वही है और समयसार वृत्ति की प्रति ६५ पत्रात्मक भट्टारकीय भंडार अजमेर में उपलब्ध है इन टीका ग्रन्थों में समाधितत्र टीका, रत्नकरण्ड टीका, और स्वयंभूस्तोत्र टीका, तो इन्हीं प्रभाचन्द्र की मानी हो जाती है । किन्तु शेष टीकाओं के सम्बन्ध में अन्वेषण कर यह निश्चय करना शेष है कि ये टीकाएं भी उन्हीं प्रभाचन्द्र की है । या अन्य किसी प्रभाचन्द्र की हैं।
वीरसेन
यह माथुर संघ के आचार्य थे, जो सिद्धान्त शास्त्रों के पारगामी विद्वान थे । आचार्यों में श्रेष्ठ थे । और माथुर संघ के व्रतियों में वरिष्ठ थे। कपाय के विनाश करने में प्रवीण थे। जैसा कि धर्मपरीक्षा प्रशस्ति के निम्न पद्य से स्पष्ट है:
सिद्धान्त पाथोनिधि पारगामी श्री वीरसेनोऽजनि सूरिवर्यः । श्री माथुराणां यमिनां वरिष्ठः कषाय विध्वंसविधौ परिष्टः ॥
वीरमेनाचार्य मे ५वी पीढ़ी में श्रमितगति द्वितीय हुए। इनका समय सं० १०५० से १०७३ है । प्रत्येक का काल २०-२० वर्ष माना जाय तो वीरसेन का समय श्रमितगति द्वितीय से १०० वर्ष पूर्व ठहरता है और वीरसेन के शिष्य देवसेन का समय दशवीं शताब्दी है । अतः वीरसेन का समय भी १०वीं शताब्दी होना चाहिये ।
देवसेन
प्रस्तुत देवसेन सिद्धान्त समुद्र के पारगामी विद्वान वीरसेन के शिष्य थे । जो उदयाचल रूप सूर्य के समान कार की प्रवृत्ति को नष्ट करने वाले, लोक में ज्ञान के प्रकाशक, सत्पुरुषों के प्रिय, तथा धीरता से जिन्होंने दोषों को नष्ट कर दिया है, ऐसे देवसेन नाम के आचार्य हुए' ।
१ ध्वस्ता शेष ध्वान्त वृत्तिर्मनस्वी तम्मात्सूरिर्देवमनो ऽजनिष्ट । लोकोद्योती पूर्व शैलादिवार्क: शिष्टा भीष्टः स्थेयसोऽपास्तदोषः ॥
- धर्म परीक्षा प्र०