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ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, प्राचार्य पादरविन्दभगवदर्हत्यरमेश्वरवदनविनिर्गत श्रुताम्भोधिवर्द्धन सुधाकरे श्रीमदमरकीतिरावल्लव्रतीश्वरचरण सरसीरुह षट्पदवृत्तिविलासविरचिते धर्मपरीक्षा ग्रंथे-'पादि गद्य दिया है।
दूसरे नथ शास्त्रसार का कुछ भाग 'प्राक काव्यमाला' नाम की कनड़ी-ग्रथमाला में प्रकाशित हया है। परंतु पूरा ग्रंथ इस समय प्राप्य नहीं है । कवि ने अपने ग्रंथ में अपने समय आदि का कुछ भी परिचय नही दिया है। परंतु कवि ने जिन शुभकीति व्रती, सैद्धान्तिक माघनन्दि यति, भानू कीतियति, धर्मभूपण, अमर कीति (कवि का गरु), अभयसूरी, वादीश्वर आदि जैनाचार्यों का स्तवन किया है। उनके समय का विचार करने में इसका समय ११६० के लगभग निश्चित होता है। उक्त आचार्यों में से शुभकीति १११५ में दिवगत होने वाले मेघचन्द्र के समकालीन थे। माघनन्दि संद्धान्तिका समय ११६० है भानुकोति ११६३ में समाधिस्थ होने वाले देवकीन के सहपाठी थे। प्रभयसरि बल्लाल नरेश और चारुकीति पण्डित के समकालीन थे। क्योंकिसा उल नख मिलता है कि अभयसरि ने इन दोनों को एक बड़ी भारी व्याधि से मुक्त करके श्रवण बेलगोल में निवास कराया था। बल्लाल विष्णवर्धन राजा का भाई था ओर चारुकीति श्रुतकीति का पुत्र था। श्रवणवेलगुल के जन गुरुया 'चारकति पण्डिताचार्य' का पद १११७ के अनंतर धारण किया था। इससे मालूम होता है कि यह त्रारुकात श्रवण वलगाल का प्रथम चारुकीति पण्डित होगा। श्रवण बेलगोल के १११ व शिलालेख में विशालकानि क शिप्य शुभकीति, शभकीति के शिष्य धर्मभूषण और धर्मभूषण के शिष्य अमरकीति बतलाये गये है। प्रारगुन कति १११५ में दिवगत होने वाले मेघचन्द्र क समकालीन है । इसलिये शुभकीति के शिष्य धर्मभूषण पार प्रागाय अनरकीति का समय ११५० के लगभग होना चाहिये । शिलालेख को यह गुरु परम्परा धर्मपरीक्षोल्लिखित गरारम्परा स बराबर मिलती है। किन्तु यह शिला लेख शक १२६५ परिधाविसंवत्सर का है। अत: समय विचारणाय है।
देखा, कर्नाटक जैन कवि छत्रसेन-काष्ठासंघ माथरान्वय के विद्वान प्राचार्य थे । जो उच्छण नगर में अपने व्याग्याना स समस्त सभाजनों को सन्तुष्ट किया करते थे' । उच्छण नगर में उस समय परमारवगीय मइलक (मदनदव ) नाम के राजा का पौत्र चामुण्डराज का विजयराज पुत्र स्थलिदेश का शासक था । उक्त नगर में उस समय भूपण नामक एक जैन श्रावक ने आदिनाथ का एक मनोहर जिन मन्दिर बनवाकर उसमें वषभनाथ (ग्रादिनाथ) की प्रतिमा की वि० सं०११६६ वैशाख सुदी तीज सोमवार सन् ११०६ई० को प्रतिष्ठा सम्पन्न कराई थी । अतः प्रस्तुत छत्रमेनाचार्य का समय ईसा को११वी शताब्दी का अन्तिम चरण और १२वीं शताब्दी का पूर्वार्ध है।
सागरनन्दी सिद्वान्तदेव सागरनन्दी सिद्धान्त देव-मूलसंघ देशीयगण पुस्तक गच्छ कोण्डकुन्दान्वय कोल्हापूर सामन्त वसदि से प्रतिबद्ध माधनन्दि के प्रशिष्य और शुभचन्द्रत्रविद्यदेव के शिष्य थे। रेचिरस सेनापतिने १२०० ईस्वी के लगभग श्रवण बेलगोल में शान्तिनाथ का मन्दिर बनवाया था। कलचुरि कुल के सचिवोत्तम रेचरग ने बल्लालदेव के चरणों में पाश्रय पाकर आरसिय केरे में सहस्त्रकूट जिनालय की स्थापना की। भगवान की अष्टविधपूजा, पूजारी और सेवको की आजीविका तथा मन्दिर की मरम्मत के लिए राजा बल्लाल ने 'हन्दर हल्लु' ग्राम प्राप्त करके उक्त सागर नन्दि को प्रदान किया। रेचस द्वारा स्थापित इस सहस्त्रकूट जिनालय के लिए जैनों द्वारा एक करोड़ रुपया इक्ठा
१. यो माथुरान्वय नभस्थलतिग्मभानोाख्यानरंजितसमस्तसभाजनस्य । श्रीच्छत्रमेन सगुरोश्चरणारविंद सेवापरोभवदन्यमनाः सदैव ॥११
-अVणा शिलालेख अजमेर म्यूजियम् २. विक्रम संवत् ११६६ वैशाख सुदी ३ सोमे वृषभनाथस्य प्रतिष्ठा ।
श्रीवृषभनाथ धाम्नः प्रतिष्ठिते भूषणेन बिम्बमिदं उच्छणक नगरेस्मिन्निह जगतो वृषभनाथस्य ।।२६ अथणालेख वर्ष सहस्र याते षट् षष्ठयुत्तर शतेन संयुक्त । विक्रम भानोः काले स्थलि विषय भवति सति विजय राज्ये