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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-माग २
इस प्रशस्ति का काल सन् ११५१ (वि० सं० १२०८) है । प्रतः बल्लाल की मृत्यु सन् ११५१ (वि० सं० १२०८) से पूर्व हुई है।
पर विचारणीय यह है कि बल्लाल अवन्ति का शासक कब बना, और उसका वंश क्या था ?
ऐतिहासिक दृष्टि से सन् ११३८ तक मालवा पर जयसिंह का अधिकार रहा । उसके बाद संभवतः यशोवर्मन के पुत्र जयवर्मन ने जयसिंह चौलुक्य के अन्तिम दिनों में मालवा को स्वतन्त्र कर लिया। किन्तु वह उस पर अधिक समय तक शासन नहीं कर सका । कल्याण के चालुक्य जगदेकमल्ल और होयसल नरसिंह प्रथम ने मालवा पर आक्रमण कर दिया और उसकी शक्ति नष्ट कर दी, और उस देश की राजगद्दी पर बल्लाल नाम के व्यक्ति को बैठा दिया। इस घटना के कुछ समय पश्चात् सन् १०५० के लगभग चौलुक्य कुमारपाल ने बल्लाल का वध करा कर, भेलसा तक मालवा का सारा राज्य अपने राज्य में मिला लिया।
खेरला गांव (जि. वेतूल) से प्राप्त शिलालेख में, जो शक सं० १०७९ (सन् ११५७ ई०) का है, इस शिलालेख में राजा नरसिंह बल्लाल और जैतपाल ऐसी राज परम्परा दी हुई है । यह शिलालेख खंडित है इसलिये पूरा नहीं पढ़ा जा सकता। एक दूसरा लेख भी वहीं से प्राप्त हुआ है, जो शक सं० १०६४ (सन १९७२ ई०)का है । इस लेख का प्रारम्भ 'जिनानुसिद्धिः' वाक्य से हुआ है। जिससे जान पड़ता है कि ये राजा जैन थे। किन्तु जैतपाल को मराठी के कवि मुकुन्दराज ने वैदिक धर्म का उपदेश देकर वेदानुयायी बना लिया था।
ये सब राजा ऐलवंशी राजा श्रीपाल के वंशज थे। खेरला ग्राम श्रीपाल राजा के आधीन था। श्रीपाल के साथ महमूद गजनवी (सन् ६६६ से १०२७) के भांजे अब्दुल रहमान का युद्ध हुआ था। तवारीखए अमजदिया के अनुसार यह युद्ध सन् १००१ई० में एलिचपुर और खेरला ग्राम के निकट हुप्रा था। अब्दुल रहमान का विवाह हो रहा था, उसी समय लड़ाई छिड़ गई, और वह दूल्हे के वेश में ही लड़ा। इस युद्ध में दोनों मारे गए।
___इस ऐतिहासिक घटना से सिद्ध है कि बल्लाल ऐलवंशी था और उसके पूर्वजों का शासन ऐलिचपुर में था। कल्याण के चालुक्य जगदेक मल्ल और होयसल नरसिंह प्रथम ने परमार राजा जयवर्मन के विरुद्ध सन् ११३८ के लगभग आक्रमण करके उसे राज्यच्युत कर दिया, और अपने विश्वस्त राजा बल्लाल को एलिचपूर से बुला कर मालवा का राज्य सोंप दिया । बल्लाल वहां ५-७ वर्ष ही राज्य कर पाया था। वह वीर और पराक्रमी शासक था। उतने अल्प समय में ही उसने अपना प्रभाव जमा लिया था और अपने राज्य का विस्तार कर लिया था किन्तु सन ११४३ में या उसके कुछ समय पश्चात् चौलुक्य कुमारपाल की आज्ञा से चन्द्रावती के राजा विक्रमसिंह के भतीजे परमार वंशी यशोधवल ने बल्लाल पर आक्रमण करके युद्ध में उसका वध कर दिया और उसका सिर कमारपाल के महलों के द्वार पर लटका दिया। उस समय से कुमारपाल अवन्तिनाथ हो गया। अस्तु, प्रस्तुत बल्लाल ही ऊन के मन्दिरों का निर्माता है।
ऊपर के कथन से यह स्पष्ट मालूम होता है कि कुमारपाल यशोधवल, बल्लाल और अर्णोराज ये सव राजा समकालीन हैं । प्रस्तुत पज्जुण्ण चरिउ की रचना ईसा की १२वीं सदी के मध्यकाल की रचना है।
प्रन्थ रचना
पज्जुण्ण चरिउ के कर्ता कवि सिद्ध और सिंह हैं । प्रस्तुत ग्रन्थ एक खण्ड काव्य है जिसमें १५ सन्धियां हैं और जिनकी श्लोक संख्या साढ़े तीन हजार के लगभग है। इसमें यदुवंशी श्रीकृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न कुमार का जीवन-परिचय गुंफित किया गया है, जो जैनियों में प्रसिद्ध २४ कामदेवों में से २१वें कामदेव थे और जिन्हें उत्पन्न होते ही पूर्व जन्म का वैरी एक राक्षस उठा कर ले जाता है और उसे एक शिला के नीचे रख देता है। पश्चात् काल संवर नाम का एक विद्याधर उसे ले जाता है, और उसे अपनी पत्नी को सोंप देता है। वहां उसका लालन-पालन होता है, तथा वहां वह अनेक प्रकार की कलाओं की शिक्षा पाता है। उसके अनेक भाई भी कल। विज्ञ बनते हैं, परन्तु उन्हें इसकी चतुरता रुचिकर नहीं होती, उनका मन भी इससे नहीं मिलता, वे उसे अपने में