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तेरहवीं और चौदहवीं शताब्दी के आचार्य, विद्वान और कवि
चतुर्मुख, कालिदास श्रीहर्प, व्यास, द्रोण, बाण, ईशान, पुष्पदन्त, स्वयंभू, और वाल्मीकि' ।
ग्रन्थ रचना में प्रेरक श्रीधर का ऊपर उल्लेख किया गया है। एक दिन अवसर पाकर सेठ श्रीधर ने लक्ष्मण से कहा कि हे कविवर ! तुम जिनदत्तचरित की रचना करो। तब कवि लक्ष्मण ने श्रीधर श्रेष्ठी की प्रेरणा एव अनुरोध से जिनदत्त चरित की रचना वि० सं० १२७५ के पूसवदी षष्ठी रविवार के दिन समाप्त की है, जैसा कि उसके निम्न पद्य से स्पष्ट है:
" बारहसय सत्तरयं पंचोत्तरयं धिक्कमका लिषि इत्तउ ।
पढम पक्खि रविवार छट्टि सहारइ पूसमासे सम्मति ॥ १- अन्तिम प्रशस्ति
चरित सार
प्रस्तुत ग्रन्थ में मगधराज्यान्तर्गत वसन्तपुर नगर के राजा शशिशेखर और उसकी रानी नयना सुन्दरी के कथन के अनन्तर उस नगर के श्रेष्ठी जीवदेव और जीवयंशा के पुत्र जिनदत्त का चरित्र अंकित किया गया है । वह क्रमशः बाल्यावस्था मे युवावस्था को प्राप्त कर अपने रूप-सौंदर्य मे युवति-जनों के मनको मुग्ध करता है— श्रौर अंग देश में स्थित चम्पानगर के मेठ की सुन्दर कन्या विमलमती से उसका विवाह हो जाता है। विवाह के पश्चात् दोनों बसंतपुर ाकर मुख से रहते है ।
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जिनदत्त जुआरियों के चंगुल में फसकर ग्यारह करोड़ रुपया हार गया। इसमे उसे बड़ा पश्चाताप हुआ । उसने अपनी धर्म पत्नी की हीरा माणिक आदि जवाहरातो से प्रति कंचुली को नौ करोड़ रुपये में जुमारियों को बेच दिया | जिनदत्त ने धन कमाने का बहाना वना कर माता-पिता से चम्पापुर जाने की आज्ञा ले लो । ओर कुछ दिन बाद धर्म पत्नी को अकेली छोड़ जिनदत्त दशपुर ( मन्दसौर) या गया । वहा उसकी सागरदत्त से भेंट हुई सागरदत्त उसी समय व्यापार के लिए विदेश जाने वाला था, अवसर देख जिनदत्त भी उसके साथ हो गया, और वह सिंहल द्वीप पहुच गया। वहा के राजा की पुत्री श्रीमती का विवाह भी उसके साथ हो गया । जिनदत्त ने उसे जैन धर्म का उपदेश दिया। जिनदत्त प्रचुर धनादि सम्पत्ति को साथ लेकर स्वदेश लाटता है, परन्तु सागरदत्त ईर्षा के कारण उसे धोखे से समुद्र में गिरा देता है प्रोर स्वयं उसकी पत्नी में राग करना चाहता है । परन्तु वह अपने शील में सुदृढ़ रहती है । व चम्पा नगरी पहुंचते है और श्रीमती चम्पा के 'जिनचैत्य' में पहुंचती है। इधर जिनदत्त भी भाग्यवश वच जाता है और वह मणिद्वीप में पहुंचकर वहा के राजा अशोक की राजकुमारी शृंगारमती से विवाह करता है । और कुछ दिन बाद सपरिवार चम्पा श्रा जाता है। वहां उसे श्रीमती र विमलमतो दोनों मिल जाती है । वहा से वह सपरिवार वसन्तपुर पहुँचकर माता-पिता से मिलता है। वे उसे देखकर बहुत हर्षित होते है । इस तरह जिनदत्त अपना काल सुख पूर्वक व्यतीत करता है । अन्त में मुनि होकर तपश्चरण द्वारा कर्म, बंधन का विनाशकर पूर्ण स्वाधीन हो जाता है ।
वय रयण पव (अणुव्रत रत्नप्रदीप)
कवि की दूसरी कृति अणुव्रतरन्न प्रदीप है जिसमें ८ सन्धिया र २०६ पद्धडिया छन्द हैं । जिनकी श्लोक संख्या ३४०० के लगभग है । ग्रन्थ में सम्यग्दर्शन के विवेचन के साथ श्रावक के द्वादश व्रतों का कथन किया गया है | श्रावक धर्म की सरल विधि और उसके परिपालन का परिणाम भी बतलाया गया है। ग्रन्थ की रचना सरस है । कवि ने इस ग्रन्थ को 8 महीनों में बनाकर समाप्त किया है ।
१. णिक्कलंकु अकलकु चउम्मुह हो, कालियासु सिरि हरिसुकइ सुहो । ar बिलासु कइया असरिसो, दोण बाणु ईसारण सहरिसो फुप्फयतु सुसंयंभुभल्लओ, बालमीउ सम्मई रसिल्लओ ।
- जिनदत्त चरित प्रशस्ति