________________
२६६
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
उपलब्धियां
गोम्मट- संग्रह सुत्तं गोम्मट सिहरुवरि गोम्मट जिणो य ।
गोम्मटराय-विणिम्मिय-दक्खिण कुक्कूड जिणो जयउ॥९६८
इस गाथा में तीन कार्यो का उल्लेख है और उन्ही का जयघोष किया गया है। गोम्मट संग्रह सूत्र गोम्मट जिन और दक्षिण कुक्कुड जिन । गोम्मट जिन से भगवान नेमिनाथ की उस एक हाथ प्रमाण इन्द्रनील मणि की प्रतिमा से है, जिसे गाम्मट राय ने बनवा कर चन्द्रगिरि पर स्थित अपने मन्दिर में स्थापित किया था और दक्षिण कुक्कुड जिन से अभिप्राय बाहुबली की उस विशाल मूति से है जो पोदनपुर में भरत चक्रवर्ती ने बाहुबली की उन्हीं के शरीराकृति जैसी मूर्ति बनवाई थी, जो कुक्कुटसर्पो से व्याप्त होने के कारण दुर्लभ दर्शन हो गई थी। उसी के अनुरूप यह मूति विन्ध्यगिरि पर विराजमान की गई है। दक्षिण विशेपण उसकी भिन्नता का द्योतक है।
चामण्डराय की अमर कीर्ति का महत्व पूर्ण प्रतीक श्रवणबेलगोल में प्रतिष्ठापित जगद्विख्यात वाहुबलि की मूति है, जो ५७ फीट उन्नत और विशाल है । और जिसका निर्माण चामण्डगय ने कराया था। और जो धूप, वर्षा सर्दी गर्मी और प्रांधी की बाधाओं को सहते हुए भी अविचल स्थित है। मूर्ति शिल्पी की कल्पना का साकार रूप है। मति के नव आदि वैसे ही अंकिन है जैसे उनका आज ही निर्माण हया है। चामण्डराय ने बाहबली की मूर्ति की प्रतिष्ठा ई० १८१ में कराई थी। लगभग एक हजार वर्ष का समय व्यतीत हो जाने पर भी वह वैसी ही सुन्दर प्रतीत होती है वह दशवं आश्चर्य के रूप में उलिखित की जाती है। दर्शक को अग्विं उसे देखते ही प्रसन्नता से भर जाता है। बाहुबली की यह मूति ध्यानावस्थाको है, वे केवल ज्ञान होने से पूर्व जिम रूप में स्थित थे, वही लता वेले जो बाहुओं तक उत्कीणित है ओर नीचे मी का वामिया भो बनी हई है। उसी रूप को कलाकार ने अकित किया है । दर्गक मूति को देखकर तृप्त नही होता। उसकी भावना उसे बार-बार देखने की होती है । मूर्ति दर्शन से जो प्रात्म लाभ होता है वह उसे शब्दो द्वारा व्यक्त नहीं कर सकता। उसके अवलोकन से यह भावना अभिव्यक्त होती है कि अन्तिम समय में इस मूर्ति का दर्शन हो । चामण्डराय की यह ऐतिहासिक देन महान् पार अमर है। शिलालेख में चामुण्डराय द्वारा बनवाय जाने का उल्लेख है । और गोम्मट सग्रह सुत्त से अभिप्राय गोम्मटसार से है।
दूसरी उपलब्धि 'त्रिप्ठि शलाका पुरुप चरित' है। जिसे चामुण्डगय ने शक सं १०० ईस्वी सन् १७८ (वि० सं०१०३५) में बनाकर समाप्त किया था। इसमें चौबीस तीर्थकगें के चरित्र के साथ चक्रवर्ती आदि महापरुषों का पावन जीवन अंकित किया गया है । इसके प्रारम्भ में लिखा है कि इस चरित्र को पहले कचि भट्टारक तदनन्तर नन्दि मनीश्वर, तत्पश्चात् कवि परमेश्वर और तत्पश्चात् जिनमेन गुणभद्र स्वामी इस प्रकार परम्परा से कहते आये है, और उन्ही के अनुमार मैं भी कहता हूं। मंगलाचरण में गद्धपिच्छाचार्य मे लेकर अजितमेन पर्यन्त प्राचार्यो की स्तुति की है और अन्त में श्रत केवली दशपूर्वधर, एकादशांगधर, प्राचागंगधर, पूर्वाग देशवर के नाम कह कर अहंबली, माघनन्दि, भृतबलि पुष्पदन्त गुणधर शाम कुण्डाचार्य, तम्बू लूराचार्य, समन्तभद्र, शुभनन्दि विनन्दि, एलाचार्य, नागसेन, वीरसेन जिनमेन आदि का उल्लेख किया है। फिर अपने गुरु की स्तुति की है। यह पुराण प्रायः गद्यमय है, पद्य बहुत ही कम है। कनड़ी भाषा के उपलब्ध ग्रंथों में चामुण्डराय पुराण ही सबसे प्राचीन माना जाता है। चामण्डगय के गुरु का नाम अजितमेनाचार्य है, जो उस समय के बड़े भारी विद्वान थे। तपस्वी
और क्षमाशील थे। उनके अनेक शिष्य थे। वंकापुर में उन्होंने अनेक शिष्यों को शिक्षा दी। प्राचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती पर भी उनका स्नेह था । चामुण्डराय के प्रग्नानुसार ही उन्होंने पंचसंग्रह (गोम्मटसार का रचना की थी। चामुण्डगय वीर और दानी थे ।) जैनधर्म के लिए उन्होंने जो कुछ किया, उससे भारतीय इतिहास में उन्हें अमर बना दिया है।
तीसरी उपलब्धि चारित्रसार या भावनासार है । जिसकी उन्होंने तत्त्वार्थ वार्तिक, राद्धांत सूत्र, महापुराण और प्राचार ग्रन्थों से सार लेकर रचना की है, जैसा कि उसके अन्तिम निम्न पद्यमे प्रकट है :
तत्वार्थराद्धांत महापुराणे स्वाचारशास्त्रेषु च विस्तरोक्तम् पाख्यात्समासादनुयोगवेदी चारित्रसारं रणरंगसिंहः ॥