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ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, और आचार्य
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"स ददर्श जगन्नाथं ततो विलसन्केवल-बोध-सम्पदा ।
अवलुप्त तमः प्रदीप प्रभया ननक्तमिवात्ममन्दिरम् ॥१४-४८ अन्तिम १५ व सर्ग में केवलज्ञान प्राप्त होते ही देवों ने नेमि तीर्थकर की स्तुति की ओर समवसरण की रचना की। भगवान नेमिनाथ ने सप्ततत्त्व ओर कर्मबन्धादि विषयों का मार्मिक उपदेश दिया। प्रार विविध देशों में विहार कर जन-कल्याण के अादर्श मार्ग को बतलाया। उससे जगत में अहिसा पार सुख-शान्ति का प्रसार हा। अन्त में योग निरोधकर अवशिष्ट अघाति कर्म का विनाशकर अविनाशी स्वात्मोपलब्धि को प्राप्त किया।
इस तरह यह काव्य बड़ा ही सुन्दर सरल और ग्स अलंकारों से युक्त है । मुराष्ट्र देश में पृथ्वी का सुन्दर वर्णन करते हए समुद्र के मध्य में वमी द्वागवती का वर्णन अत्यन्त सुन्दर वन पड़ा है। उममें श्लिष्टोपमा का उदाहरण बहुत ही सुन्दर हुआ है।
परिस्फुरन्मण्डलपुण्डरीकच्छायापनीतातपसंप्रयोगैः ।
या राजहंसरुपसेव्यमाना, राजीविनीवाम्बनिधौ रराजे ॥३७ जो नगरी समुद्र के मध्य में कमलिनी के समान शोभायमान होती है। जिस प्रकार कमलिनी विकसित पण्डरीकों-कमलों-की छाया में जिनकी आताप व्यथा शान्त हो गई है ऐसे राजहंमों' हमविशेषो से सेवित होती है। उसी प्रकार वह नगरी भी तने हुए विस्तृत पुण्डरीकों-हत्रों-की छाया में प्रातप व्यथा दूर हो गई है ऐसे राजइंसों-बडे बडे श्रेष्ठ गजानों से सेवित थी--उसमें अनेक गजा महाराजा निवास करते थे।
कवि का सम्प्रदाय दि० जैन था, क्योंकि उन्होंने मल्लिनाथ तीर्थकर को कुरुराज का पुत्र माना है, पूत्री नहीं. जैसा कि श्वेताम्बर लोग मानते है। विरोधामास अलकार के निम्न उदाहरण से स्पष्ट है :-.
तपः कुठार-क्षत कर्मबल्लि-मल्लिजिनोवः श्रियमातनोतु ।
कूरोः सुतस्यापि न यस्य जातं, दुःशासनत्वं भुवनेश्वरस्य ।।१६।।
लाया है कि- 'तपरूप कुठार के द्वारा कर्मरूप वेल को काटने वाले वे मल्लिनाथ भगवान तुम सबकी लक्ष्मी को विस्तृत करे, जो कुछ के पुत्र होकर भी दुःशासन नहीं थे, पक्षमें दुष्ट शासन वाले नहीं थे।
मल्लिनाथ भगवान कुरुराज के पुत्र तो थे, किन्तु दुःशासन नहीं थे यह विरोध है, उसका परिहार ऐसे हो जाता है, कि मल्लिनाथ के पिता का नाम कुरुराज था, इसका कारण वे कुरुराज पुत्र कहलाये, किन्तु वे दुःशासन नहीं थे- उनका शासन दुष्ट नहीं था-उनके शासन के सभी जीव सुख-शांति से रहते थे। इस पद्य में तप और कुठार, कर्म और वल्लि का रूपक तथा बल्लि और मल्लि का अनुप्रास भी दृष्टव्य है।
वास्तव में अलकार भावाभिव्यक्ति के विशेष साधन है। प्रत्येक कवि रचना में सौन्दर्य और चमत्कार लाने के लिये अलंकारों की योजना करता है । कवि वाग्भट ने भी अपनी रचना में सौन्दर्य विधान के लिये अलंकारों को नियोजित किया है। अलंकारी के साथ रसों के सन्दर्भ की संयोजना उसे और भी सरस बना देती है । इससे पाठकों का केवल मनोरंजन ही नहीं होता किन्तु उन पर काव्य और कवि के श्रम का प्रभाव भी अंकित होता है।
रचनाकाल
कवि वाग्भट ने अपनी गुरुपरम्परा और रचनाकाल का ग्रन्थ में कोई उल्लेख नहीं किया। किन्तु वाग्भट्रालकार के कवि वाग्भट (मं० ११७६) ने अपने ग्रन्थ में नेमिनिर्माण काव्य के अनेक पद्य उद्धृत किये हैं । नेमिनिर्वाण काव्य के छठे सर्ग के ३ पद्य - 'कान्तारभूमी' 'जुहूर्वसन्ते' और नेमिविशाल नयनों आदि ४६, ४७ और ५१ नं० के पद्य वाग्भट्रालंकार के चतुर्थ परिच्छेद के ३५, ३६ और ३२ नं० पर पाये जाते हैं। और सातवें सर्ग का'वरणा प्रसन निकरा' आदि २६ न० का पद्य चौथे परिच्छेद के ४० नं० पर उपलब्ध होता है। इससे स्पष्ट है कि समिनिर्वाण काव्य के कर्ता कवि वाग्भट वाग्भट्रालंकार के कर्ता से पूर्ववर्ती हैं। उनका समय संभवतः वि. की ११वीं शताब्दी होना चाहिए। यहां यह विचारणीय है कि धर्मशर्माभ्युदय और नेमिनिर्वाण काव्य का तुलनात्मक अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि दोनो का एक दूसरे पर प्रभाव रहा है। दोनों की कहीं-कहीं शब्दावली