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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ श्रुत्वा तमार्तध्वनिमेकवीरः स्फारं दिगन्तेषु स दत्त दृष्टि । ददर्शवाट निकरे निषण्णः खिन्नाखिलखापद वर्ग गर्भम् ॥ तं वीक्ष पप्रच्छ कृती कुमारः स्व सारथि मन्मथसार मूर्तिः । किमर्थ मेते युगपन्निबद्धाः पार्शः प्रभूताः पशवो रटन्तः ॥३ श्रीमन्विवाहे भवतः समन्तादभ्यागतस्य स्वजनस्य भुक्त्यैः । करिष्यते पाक विधेविशेष वागिभिः तमित्युवाच ॥४ श्रुत्वा वचस्तस्य सवश्यवृत्तिः स्फुरत्कृपान्तः करणः कुमारः । निवारयामास विवाह कर्माण्य धर्मभीरुः स्मृत पूर्वजन्मा ॥५ अनत्तरत्यत्ररथान्निषिद्ध निः शेषवैवाहिक संविधान ।।
स विस्मयः किं किमति वाणः समाकुलो भूदथ बन्धुवर्गः ॥६ उन्होंने अपने शिकारी जीवन से जयन्त विमान में उत्पन्न होने तक की पूर्व भवावली भी सुनाई, और समस्त पुरजनों और परिजनों को समझा कर वन का मार्ग ग्रहण किया, और रैवतगिरि पर दीक्षा लेकर तप का अनुप्ठान करने लगे।
कवि ने तीर्थकर नेमिनाथ की विरक्ति के प्रसग में शान्तरस को सयोजित किया है। पशुओं के चीत्कारने उनके हृदय को द्रवित कर दिया है, और वे विवाह के समस्त वस्त्राभूपणों का परित्याग कर तपश्चरण के लिये वन में चले जाते है। इस सन्दर्भ को कवि वाग्भट ने अत्यन्त सुन्दर और मार्मिक बनाया है । भगवान नेमिनाथ विचार करते हैं:
परिग्रहं नाहमिमं करिष्ये सत्यं यतिष्ये परमार्थसिद्धय:। विभोग लीलामृगतृष्णकासु प्रवर्तके कः खलु सद्विवेकः ।। विभोग सारङ्गहतो हि जन्तुः परां भुवं कामपि गाहमानः । हिंसानृतस्तेयमहावनान्तर्वम्भ्रम्यते रेचित साधुमागः ।।
मात्मा प्रकृत्या परमोत्तमोऽयं हिसां भजन्कोपि निषादकान्ताम् । धिक्कार भाग्नो लभते कदाचिद संशयं दिव्यपुरप्रवेशम् ।। दानं तपोववृष वृक्षमूलं श्रद्धानतो येन विवर्ध्य दूरम् ।
स्वनन्ति मूढाः स्वयमेवहिंसा कुशीलता स्वीकरणेन सद्यः ।। मैं विवाह नहीं करूंगा, किन्तु परमार्थ सिद्धि के लिये समीचीन रूप से प्रयत्न करूंगा। ऐसा कौन सद्विवेकी पूरुष होगा, जो भोगरूपी मृगतृष्णा में प्रवृत्ति करेगा। भोगरूपी सारंग पक्षी से हृत प्राणी हिंसा, झूठ, चोरी कुशील और परिग्रह को करता हुआ अपने साधु कर्म का भी परित्याग कर देता है । यद्यपि यह प्रात्मा प्रकृति से उत्तम है तो भी वह पर क्रोधोत्पादक हिंसा का सेवन करता हुआ धिक्कार का भागी बनता है; किन्तु स्वर्ग और निर्वाण आदि को प्राप्त नहीं करता है। जो दान और तप रूपी धर्म वृक्ष पर श्रद्धान करते हुए उन्हें दूर तक नहीं बढ़ाते हैं, वे मूर्ख हैं और हिंसा कुशीलादि का सेवन कर धर्म वृक्ष की जड़ को उखाड़ डालते हैं । अर्थात् जो व्यक्ति द्रव्य या भावरूप हिंसा में प्रवृत्त होता है वह दुर्गति का पात्र बनता है। अतएव विवेकी पुरुष को जाग्रत होकर धर्म सेवन करना चाहिये।
चौदहवें सर्ग में नेमि ने दुर्धर एवं कठोर तपश्चरण किया । वर्षा ग्रीष्म और शरत ऋतु के उन्मुक्त वाता वरण में कायोत्सर्ग में स्थित हए और शुक्लध्यान द्वारा घाति-कर्म कालिमा को विनष्ट कर केवलज्ञान प्राप्त किया। जिस तरह अन्धकार रहित दीपक की प्रभा द्वारा रात्रि में अपने भवनों को देखा जाता है उसी प्रकार वे भगवान नेमिनाथ समूत्पन्न हए केवलज्ञान द्वारा तीनों लोकों को देखने जानने लगे। यथा