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ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचाय
पांचवें सर्ग में भगवान का देवों ने जन्माभिषेक धम-धाम से सम्पन्न किया। इन्द्रने उसका नाम अरिष्टनेमि रक्खा । जन्माभिषेक सम्पन्न कर देव स्वर्ग लोक चले गए।
छठे सग में अरिष्टनेमि की नवोदित चन्द्रमा के समान शरीर की अभिवृद्धि होने लगी। वे तीन ज्ञान के धारक थे। उनसे पुरजन परिजन सभी प्रानन्दित थे । युवा होने पर भी उनमें विषय-वासना नही थी। उनका सौन्दर्य अनुपम था। यादव लोग रैवतक पर वसन्त का अवलोकन करने गए। अरिष्टनेमि से भी सारथी ने रैवतक पर चलने के लिये निवेदन किया। सारथीकी प्रेरणा से नेमिनाथ भी पर्वत की शोभा देखने गये।
सातवे सर्ग में कवि ने रैवतक पर्वत का बड़ा सुन्दर वर्णन ५५ पद्यों में किया है। जिनमें लगभग ४४ छन्द प्रयुक्त हुए हैं। वर्णन की छटा अनूठी है । जलपूर्ण सरोवरो में हस क्रीड़ा कर रहे थे। चम्पा और सहकार की छटा इस पर्वत की भूमि को सुवर्णमय बना रही थो । कुरवक, अशोक, तिलक प्रादि वृक्ष प्रपनी शोभा से नन्दन वन को भी तिरस्कृत कर रहे थे। सारथि की प्रेरणा से पर्वतराज की शोभा देखने वाले नेमिनाथ ने सघन छाया में निर्मित पट मन्दिर में निवास किया । पर्वत कितना श्री मम्पन्न था। उस पर तपस्विनी गणनी प्रायिका विराजमान हैं। जो मुनि समूह से शोभित हैं, गुरुगों से सहित है। यदुवंश भूषण नेमिजिनेन्द्र के विराजमान होने पर उस पर्वत को शोभा का क्या कहना । ऊर्जयन्तगिरी का इतना सुन्दर वर्णन मुझे अन्यत्र देखने में नहीं आया।
पाठव सर्ग में यादवों की जल क्रीड़ा का सुन्दर वर्णन है, नवमें सर्गमें सूर्यास्त, सध्या, तथा चन्द्रोदय का सुन्दर सजीव वर्णन निहित है। मूर्यास्त होने पर अन्धकार ने प्रवेश किया। रात्रिके सघन अन्धकार को छिन्न-भिन्न करने के लिये ही मानों औषधिपति (चन्द्रमा) का उदय हया।
दशवे सर्ग में-मधुपान का वर्णन है, युवक और युवतियां मधुपान में आसक्त थीं, मधु का मादक नशा उन्हें प्रानन्द विभोर बना रहा था । यादव लोग मधुपान से उन्मत्त हो विविध प्रकार की सुरत क्रीड़ाओं में अनुरक्त थे।
ग्यारहवे सर्ग में राजा उग्रसेन की सूपूत्री राजोमती वसन्त में जल क्रीड़ा के लिये अपनी माताओं के साथ रवतक पर पाई थी। अरिष्ट नेमि के अवलोकनसे वह काम बाण से विध गई । शारीरिक सन्ताप मेटने के लिये सखियों ने चन्दनादि का उपयोग किया, किन्तु सन्ताप अधिक बढ़ गया । यादवेश समुद्र विजय ने नेमिके लिये राजीमती की याचना के लिए श्रीकृष्ण को भेजा। उग्रसेन ने सहर्ष स्वीकृति प्रदान की। अरिष्ट नेमि के विवाह का शुभ मूहर्त निश्चय किया गया । विवाहोत्सवकी तैयारिया होने लगी।
बारहवे सर्ग में नेमि की वर यात्रा सजने लगी, शृंगार वेत्तानों ने उनका श्रृंगार किया, शुद्ध वस्त्र धारण किये प्राभषण पहने, इससे नेमिके शरीर की प्राभा शरत्कालीन मेघ के समान प्रतीत होती थी। वे महान वैभव और सम्पत्ति से युक्त थे। स्वर्ण निर्मित तोरण युक्त राजमार्ग से नेमि धीरे-धीरे जा रहे थे। उधर राजीमती का भी सन्दर श्रृगार किया गया था। वर के सौन्दर्य का अवलोकन के लिये नारियाँ गवाक्षों में स्थित होगई। सभी लोग राजोमती के भाग्य की सराहना कर रहे थे । दूर्वा अक्षत, और कुकुम तथा दधिसे पूर्ण स्वर्ण पात्र को लिये राजीमती वर के स्वागतार्थ द्वार पर प्रस्तुत हुई।
तेरहवें सर्गमें रथ से उतरने के लिये प्रस्तुत अरिष्टनेमि ने पशुओं का करुण 'क्रन्दन' सुना। नेमि ने सारथी से पूछा कि पशमों की यह प्रार्तध्वनि क्यों सुनाई पड़ रही है ? सारथी ने उत्तर दिया-विवाह में समिलित पतिथियों को इन पात्रों का मांस खिलाया जायगा । सारथी के उत्तर से नेमि को अत्यधिक वेदना हई। और उन्हें पर्व जन्म का स्मरण हो पाया। वे रथ से उतर पड़े और समस्त वैवाहिक चिन्हों को शरीर से अलग कर दिया। उग्रसेन मादि ने तथा कुटुम्बी जनों ने अष्टिनेमि को समझाने का प्रयत्न किया, पर सब निष्फल रहा, उन्होंने स्पष्ट उत्तर दिया कि मैं विवाह नही करूंगा। जैसा कि ग्रन्थ के निम्न पद्यों से प्रकट है:
१ मुनिगण सेव्या गुरुणा युक्तार्या जयति सामुत्र ।
चरणगत मग्विलमेव स्फुरतिारा लक्षणं यस्याः ॥ ७-२