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तेरहवीं और चौदहवीं शताब्दी के प्राचार्य, विद्वान और कवि
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देते हए लिखा है कि वे पहले जन्म में कौशाम्बी के राजा के राजमंत्री के पुत्र थे और उनका नाम वायुभूति था। उन्होंने रोष में आकर अपनी भाभी के मुख में लात मारी थी, जिसमे कुपित हो उसने निदान किया था कि मैं तेरी इस टाग को खाऊंगी। अनन्तर अनेक पर्याय धारण कर जैनधर्म के प्रभाव से वे उज्जैनी में सेठ पुत्र हए वे बाल्य अवस्था में ही अत्यन्त सुकुमार थे, अतएव उनका नाम मुकुमाल रक्खा गया । पिता पुत्र का मुख देखते ही दीक्षित हो गया और प्रात्म-साधना में लग गया । माता ने बड़े यत्न से पुत्र का लालन-पालन किया और उसे सुन्दर महलों में रखकर सांसारिक भोगोपभोगों में अनुरक्त किया। उसकी ३२ सुन्दर स्त्रिया थी। जब उसकी प्राय अल्प रह गई, तब उसके मामा ने, जो माध थे, महल के पीछे जिनमन्दिर में चातुर्मास किया, अोर अन्त में स्तोत्र पाठ को सुनते ही सृकुमाल का मन देह-भोगादि मे विरक्त हो गया। वह एक रस्मो के सहारे महल में नीचे उतरा और जिन मंदिर में जाकर मुनिराज का नमस्कार कर प्रार्थना को कि हे भगवन् ! आत्मकल्याण का मार्ग वताइये। उन्होंने कहा- तेरी पाय तीन दिन की शेप रह गई है। अत: शीघ्र ही प्रान्म-माधना में तत्पर हो । मूकुमाल ने जिन दीक्षा लेकर और प्रायोपगमन सन्यास लकर कठोर तपश्चरण किया। वे शरीर में जितने सुकोमल थे, उपसर्ग-परिषहों के जीतने में वे उतने ही कठोर थे । वे वन में समाधिस्थ थे, तभी एक श्यालनो ने अपने बच्चे सहित आकर उनके दाहिने पैर को खाना शुरु किया और बच्चे ने बाएं पैर को उन्होने उस अमित कष्ट को शान्ति मे बारह भावनामों का चिन्तवन करते हुए सहन किया और सर्वार्थ सिद्धि में देव हुए। ग्रन्थ का चरित भाग बड़ा हो मुन्दर है।
ग्रन्थ निर्माण में प्रेरक
__ कवि ने इस चरित की रचना साहु पीथे के पुत्र कुमार के अनुरोध से की है। प्रशस्त में उनका परिचय निम्न प्रकार दिया है :
बलड इ ग्राम के निवासी पुरवाड वशी साहु 'जग्गण' थे । उनकी भार्या का नाम 'गल्हा' देवी था। उससे आठ पुत्र उत्पन्न हुए थे। साहु पीथे, महेन्द्र, मणहर, जल्हण, सलकवणु, सपुण्णु, समुदपाल, और नयपाल । इनमें ज्येष्ठ पुत्र साह पीथे की पत्नी सुलक्षणा के पुत्र कुमार थ । कुमार के भी कई पुत्र थे। कुमार जैनधर्म का पाराधक था, देह-भोगी से विरक्त था, उसे दान देने का ही एक व्यसन था, विजयी, और जितेन्द्रिय था' । कवि ने सन्धियों के प्रारंभ में संस्कृत पद्यों मे कमार की मंगल कामना की है। ग्रन्थ चकि कमार की प्रेरणा से बनाया है अतएव उन्हीं के नामांकित किया है। जैसा कि उसके निम्न पूप्पिका वाक्य में प्रकट है:
इय मिरिकमालसामि मणोहरचरिए सुन्दर यरगुणरयण-णियरस भरि विवध सिरि मुकइ सिरिहर विरइए माह पोथे पुत्र कुमार णामकिए अग्गिभूइ-वाउभूइ सुमित्त मेलाववणणो णाम पढमो परिच्छनी समत्ती ।।१।।
कवि ने इस ग्रन्थ की रचना बलडइ (अहमदावाद) के राजा गोविन्दचन्द्र के राज्य में वि० स० १२०८ अगहन कृष्णा ततीया सोमवार के दिन समाप्त की है। पर इतिहास में अभी यह पता नहीं चला कि ये गोबिन्द राज कौन है और इनका राज्य कब से कब तक रहा है।
मुनि विनयचन्द्र प्रस्तुत मुनि विनयचन्द्र माथुरसंघ के विद्वान बालचन्द्र मुनि के दीक्षित शिष्य थे। इनके विद्यागुरु उदयचन्द्र थे, जो पहले गहस्थ थे और उनकी पत्नी का नाम देमति (देवमनी) था। उन्होंने उस अवस्था में 'मुगंध दशमी'
१ भक्तिर्यस्य जिनेन्द्रपादयुगले धर्मे मतिः सर्वदा। बैगग्यं भव-भोगबन्धविषये वांछा जिनेशागमे । सद्दाने व्यसने गुरी बियिता प्रीतिबुधाः विद्यते । स श्रीमान् जयताज्जितेन्द्रिय रिपुः श्रीमत्कुमाराभिधः ।।
-सुकुमाल चरिउ ३--१ २. देखो, जैन ग्रन्थ प्रशस्ति संग्रह भाग २ पृ० ११