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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २
चान्द्र कातंत्र जैनेन्द्रं शब्दानुशासनं पाणिनीय मत्तेन्द्र नरेन्द्रसेन मुनीन्द्रगेऽकाक्षर पेरंगिषु मोगो ।
यह नरेन्द्रसेन व्याकरण शास्त्र के साथ न्याय (दर्शन) शास्त्र और काव्य शास्त्र के भी विद्वान थे। इसी से इनके शिष्य नयसेन ने अपने कन्नड़ ग्रन्थ धर्मामृत में अपने गुरु नरेन्द्रसेन का गुणगान करते हुए शास्त्रज्ञान के समुद्र और त्रैविद्य चक्रेश्वर बतलाया है। यथा
'श्रुतवाराशि नरेन्द्रसेनमुनिपं त्रैविद्यचक्रेश्वरम् ।
नरेन्द्रसेन ने अपने शिष्य नयसेन को व्याकरण और न्याय शास्त्र में निष्णात बनाया था । न्याय व्याकरण और काव्य शास्त्र में निपुण विद्वानों को ' त्रैविद्य' की उपाधि से अलंकृत किया जाता था ।
नयसेन ने अपने धर्माभृत का समाप्तिकाल अक्षर संख्या में प्रकट किया है- "गिरी शिखों मार्ग शशी संख्यय लावगमोदित सुत्तिरे शक काल मुन्नतिय नन्दन वत्सर दोल"। यहां गिरि शब्द का संकेतार्थ सात होने से शक वर्ष १०३७ होने पर भी नन्दन संवत्सर शक वर्ष १०३४ में आने से गिरि शब्द का संकेतार्थ ' ग्रहण किया गया है। इससे धर्मामृत का रचनाकाल शक वर्ष १०३४ सन् १९१२ निश्चित है । इससे नरेन्द्रसेनका समय २५ वर्ष पूर्व सन् १०८७ होना चाहिये । पी० बी० देसाई ने भी इन नरेन्द्रसेन द्वितीय का समय सन् १०८० बतलाया है ।
नरेन्द्रमेन की एकमात्र कृति 'प्रमाण प्रमेय कलिका' है। यह न्याय विषयक एक लघु सुन्दर कृति है । जो न्याय के अभ्यासियों के लिये बहुत उपयोगी है। इसमें प्रमाण और प्रमेय इन दो विषयों पर सरल संक्षिप्त और विशद रूप से चिन्तन किया गया है। भाषा शैली सरल एवं प्रवाह पूर्ण है । रचना में कहीं कहीं मुहावरों, न्याय वाक्यों और विशेष पदों का प्रयोग किया गया है । श्राचार्य नरेन्द्रसेन ने इस ग्रन्थ में प्रभाचन्द्र की पद्धतिका अनुसरण किया है । ग्रन्थ में रचना काल नहीं है, और न उनके शिष्य नयसेन ने ही उनकी कृति का उल्लेख ही किया है । उनकी अन्य कृतियां भी अन्वेषणीय हैं। इनका समय सन् १०६० से सन् १०८७ ई० होना संभव है ।
जिनसेन
जिनसेन मूलसंघ सेनगण के विद्वान थे और कनकसेन द्वितीयके जो जिनागम के वेदी और गुरुतर संसार कानन के उच्छेदक और कर्मेन्धन-दहन में पट्ट शिष्य थे। जिनमेन मुनीन्द्र, मद रहित सकल शिप्यों में प्रधान, काम के विनाशक और संसार समुद्र से तारने के लिये नौका के समान थे। जैसाकि नागकुमार चरित्र प्रशस्ति के निम्न पद्य से प्रकट है
गतमयोऽजनितस्य महामुनेः प्रथितवान जिनसेन मुनीश्वरः । सकल शिष्यवरो हतमन्मथो भवमहोदधितारतरंडकः ॥
जिनका शरीर चारित्र से भूषित था । परिग्रह रहित - निसंग, दुष्ट कामदेव के विनाशक और भव्यरूप कमलों को विकसित करने के लिये सूर्य के समान थे। जैसा कि भैरव पद्मवती कल्प को प्रशस्ति से स्पष्ट हैचारित्र भूषिताङ्गो निःसंगो मथित दुर्जयानंग: । तच्छिष्यो जिनसेनो बभूव भव्याब्जद्यर्मा शुः ५६
कनकसेन द्वितीय का समय ६६० ईस्वी है । और जिनसेन का समय ईस्वी सन् १०२० है ।
नयसेन
नयसेन - मूल संघ - सेनान्वय-चन्द्रकवाट अन्वय के विद्वान थे और त्रैविद्यचक्रवर्ती नरेन्द्र सूरि के शिष्य थे । नरेन्द्रसेन अपने समय के बहुत प्रभावशाली विद्वान हुए हैं। चालुक्य वंशीय भुवनैकमल्ल (सन् १०६६ से १०७६)
१ अनेकान्त वर्ष २३ किरण १ पृ० ४१
२ जनिज्य इन साउथ इंडिया पृ० १३६