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________________ प्राचार्य दौलामस (धृतिसेन) और मुनि कल्याण ईसवी पूर्व ३२६ सन् के नवम्बर महीने में सिकन्दर (Alerandcr) ने अटक के निकट सिन्धु नदी को पार किया और वह तक्षशिला में आकर ठहरा। उस समय तक्षशिला का राजा अम्भि था। उसने सिकन्दर से बिना युद्ध किये ही उसकी अधीनता स्वीकार कर ली थी। उसी की सहायता से सिकन्दर की सेना ने सिन्धु नदी को पार किया और तक्षशिला में पहुंच कर अपनी थकान उतारी। उस समय सिकन्दर ने दिगम्बर जैन श्रमणों (मुनियों) के उच्च चरित्र, तपस्वी जीवन, उन्नत ज्ञान प्रोर कठोर साधना के सम्बन्ध में अनेक लोगों से प्रशंसा सुनी थी। इसमें उसके मन में दिगम्बर जैन मुनियों के दर्शन करने की प्रबल आकांक्षा थी। जब उसे यह ज्ञात हुआ कि नगर के बाहर अनेक नग्न जैन मुनि एकान्त में तपस्या कर रहे हैं, तब उसने अपने एक अमात्य प्रोनेसीक्रेटस (Oncsicrates) को आदेश दिया कि तुम जाओ और एक जिम्नोसाफिस्ट (Gyninosophyst) दिगम्बर जैन मुनि को आदर सहित लिवा, लाओ। प्रोनेसीक्रेट्स वहाँ गया, जहाँ जंगल में जेन मुन तपस्या कर रहे थे। वह जैन संघ के आवार्य के पास पहुँचा और कहा-आचार्य ! आपको बधाई है, आपको परमेश्वर का पुत्र सम्राट् सिकन्दर, जो सब मनुष्यों का जा है, अपने पास वलाता है। यदि आप उसका निमन्त्रण स्वीकार करके उसके पास चलेंगे तो वह आपको बहुत पारितोषिक देगा और यदि आप निमन्त्रण अस्वीकार करके उसके पास नहीं जायंगे तो सिर काट लेगा। उस समय श्रमण साधु संघ के प्राचार्य दौलामस (Daulamus) (सम्भवतः धृतिमेन) सूखी घास पर लेटे हुए थे। उन्होंने लेटे हुए ही सिकन्दर के अमात्य की बात सुनी और मुस्कराते हुए बोले-सबसे श्रेष्ठ राजा बलात् किसी की हानि नही करता। वह प्रकाश, जीवन, जल, मानव शरीर और आत्मा का बनाने वाला नहीं है, और न इनका संहारक है। सिकन्दर देवता नहीं है, क्योंकि उसकी एक दिन मृत्यु अवश्य होगी। वह जो पारितोपिक देना चाहता है वे सभी पदार्थ मेरे लिये निरर्थक है। मैं तो घास पर सोता है। ऐसी कोई वस्तु अपने पास नहीं रखता जिसकी रक्षा की मुझे चिन्ता करनी पड़े, जिसके कारण अपनी शांति की नींद भंग करनी पड़े। यदि मेरे पास सुवर्ण या अन्य कोई सम्पत्ति होती तो मै ऐसी निश्चिन्त नींद न ले पाता । पृथ्वी मुझे आवश्यक पदार्थ प्रदान करती है, जैसे बच्चे को उसकी माता सुख देती है। मैं जहाँ कहीं जाता हूँ वहाँ मुझे अपनी उदर-पूर्ति के लिये कमी नहीं । आवश्यकतानुसार सब कुछ (भोजन) मुझे मिल ही जाता है, कभी नहीं भी मिलता तो मैं उसकी कुछ चिन्ता नहीं करता। यदि सिकन्दर मेरा सिर काट डालेगा, तो वह मेरी आत्मा को तो नष्ट नहीं कर सकता। सिकन्दर अपनी धमकी से उनको भयभीत करे जिन्हें सुवर्ण, धन आदि की इच्छा हो, या जो मृत्यु से डरते हों। सिकन्दर के ये दोनों अस्त्र-आर्थिक लोभ-लालच तथा मृत्यु-भय हमारे लिये शक्तिहीन हैं-व्यर्थ हैं। क्योंकि हम न सुवर्ण (सोना) चाहते हैं और न मृत्यु से डरते हैं । इसलिए जात्रो और सिकन्दर से कह दो कि दौलामस को तुम्हारी किसी भी वस्तु की आवश्यकता नहीं है । अतः वह (दौलामस )तुम्हारे पास नहीं आवेगा। यदि सिकन्दर मुझपे कोई वस्तु चाहता है तो वह हमारे समान बन जावे। मोनेसीक्रेट्स ने सारी बातें सम्राट् से कहीं। सिकन्दर ने सोचा-जो सिकन्दर से भी नहीं डरता, वह महान् है, उसके मन में प्राचार्य दौलामस के दर्शनों की उत्सुकता जागृत हुई। उसने जाकर आचार्य महाराज के दर्शन किये। वह जैन मुनियों के आचार-विचार, ज्ञान और तपस्या से बड़ा प्रभावित हुआ। उसने अपने देश में ऐसे
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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