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________________ नवमी-दशवी शताब्दी के आचार्य २३३ संसार सुहविरत्तो वेरग्गं परम उवसमं पत्तो। विविह तव तविय देहो मरणे पाराहनो एसो॥१८ अप्प सहावेणिरो वज्जिय परदव्वसंगसुक्खरसो। णिम्महिय रायदोसो हवई पाराहनो मरणे ॥१६ मल्लेखना करने वाला भव्य यदि केवल वाह्य शरीर को ही कृश करता है किन्तु अान्तरिक कपायों का विनाश नहीं करता तो उसकी वह शरीर सल्लेखना निरर्थक है । इस कारण शरीर सल्लेखना के साथ प्रान्तरिक कषायो का दमन करना-उन्हे रस विहीन बनाना नितान्त आवश्यक है--अथवा उनकी शक्ति क्षीण कर अशक्त बनाना जरूरी है. जिसमे वे अपना कार्य करने में समर्थ न हो सक । क्योकि कपाय बलवान है, व अवसर पाते ही क्षपक के चित्त को संक्षभित कर सकती है, अतएव उनका जय करना श्रेयस्कर है, उनके संल्लखित होने पर मुनि का चित्त क्षभित नही हो सकता । अतएव साधु उत्तम धर्म को प्राप्त होता है। ग्रन्थ में परिपह और उपसर्ग सहिष्ण मुनियों का नामोल्लेख भी किया है। समाधिमरण करने वाला क्षपक यह भावना करता है कि मेरे कोई व्याधि नही है, राग-द्वप हित मेरे ग्रात्मा का कभी मरण नही होता. क्योंकि व्याधि और मरण तो शरीर में होता है आत्मा का कोई मरण नही होता, शरीर जड़ है, आत्मा चैतन्य का पिण्ड है । अतः प्रात्मा में कोई,दुःख नही होता। सल्लेहणा शरीरे बाहिरजोएहि जा कया मुणिणा। सयला वि सा णिरत्था जाम कसाए ण सल्लिहदि ॥३५ इस तरह जो पुरुप चारो आगधनाओं का पाराधना करता है, और तपश्चरण द्वाग आत्मशुद्धि करता है. सर्व परिग्रह का परित्याग कर जि लग धारक होता है, तथा प्रात्मा का ध्यान करता है वह निश्चय से सिद्धि को (स्वात्मोपलब्धि को) प्राप्त करता है, इस तरह यह ग्रन्थ बड़ा सुन्दर और मनन करने योग्य है। अन्त में कवि अपने अहकार का परिहार करता हुमा कहता है कि मेरे में कवित्व नही है, छन्दों का भी परिज्ञान नही है फिर भी मैं देवसेन अपनी भावना के निमित्त इस ग्रन्थ की (आराधनासार की) रचना कर रहा हूँ। यदि इसमें अज्ञतावश प्रवचन विरुद्ध कहा गया हो, तो मनीन्द्रजन उमका सशोधन कर ले। इस ग्रन्थ पर एक सस्कृत टीका है, जिसके कत्ता काष्ठासघी मनि क्षेमकीति के शिष्य रत्नकोतिर कीति पडिताचार्य के नाम से विश्रत थे। टीका सरल, सुबोध और प्रमाद गण ने यूक्त्त है। और ग्रन्थ कर्ता के रहस्य को उद्घाटित करती हुई वस्तु तत्त्व की विवेचक है। मुल ग्रन्थ प्रोर टीका दोनो ही माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला मे प्रकाशित है। नयचक्र-८७ गाथात्मक है, जिसे लघु नयचक्र भी कहा जाता है । यह नाम करण किसी बड़े नयचक्र को देखकर बाद में किया गया जान पड़ता है। समाप्ति वाक्य में इसे नयचक्र प्रकट किया है। अन्यत्र भी नयचक्र के नाम से इसका उल्लेख मिलता है । देवसेन ने नयचक्र में नयों का मूल रूप से सुन्दर वर्णन किया है। नयों के मूल दो भेद द्रव्याथिक पर्यायाथिक किये गए है और शेष सब सख्यात असंख्यात भेदो को इन्ही के भेद-प्रभेद बनलाया गया है २ । नयों के कथन १. श्वेताम्बराचार्य यशोविजय ने 'द्रव्यगुणपर्याय रासो' में और भोज सागर ने 'द्रव्यानुयोग तर्कणा' मे भी देवर्मन के नामोल्लेख पूर्वक लघु नयचक्र का उल्लेख किया है। २. णिच्छ य ववहारणया मलिमभेयागयाण सव्वाण । णिच्छय साहरणहेउ पज्जयदबत्थिय मुणह । दो चेबय मलणया भग्गियादव्वत्थ पज्जयत्थ गय।। अ सम्वा ते तब्भेया मुणेयव्वा ।। .-नय चक्रसग्रह
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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