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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भास २
भट्टारक ज्ञानकोति मृलसंघ कुन्दकुन्दान्वय सरस्वती गच्छ और बलात्कारगण के भट्टारक वादि भूपण के पट्टधर शिप्य थे, और पद्म कीति के गुरु भाई थे।
"श्री मूलसंघे च सरस्वतीति गच्छे बलात्कारगणे प्रसिद्ध । श्री कुन्दकन्दान्वयके यतीशः श्री वादिभषो जयतीह लोके ॥५८ तदगुर बन्ध वन समय॑ः पंकजकीतिः परम पवित्रः । सरि पदाप्तो मदन विमुक्तः सद्गणराशिर्जयत् चिरं सः ॥५६
शिष्यस्तयोज्ञानसक ति नामा श्री सरिचाल्प सशास्त्रवेत्ता" ज्ञानकीर्ति की एकमात्र रचना 'यगोधर चरित' है, जिसमें राजा यशोधर और चन्द्रमती का जीवन-परिचय दिया हया है। कवि ने इस ग्रन्थ को बंगदेश में स्थित चम्पानगरी के समीप 'अकच्छपूर' (गव बरपुर) नामक नगर के आदिनाथ चैत्यालय में विक्रम सं०१६५६ में माघमादा परमी शक्रवार के दिन बनाकर पूर्ण किया।
भट्टारक ज्ञानकीति ने माह नान की प्रार्थना और वृधजयचन्द्र के प्राग्रह से इस ग्रन्थ की रचना की थी। साह
कुल को जीतने वाले राजा मानमिह के महामात्य (प्रधानमत्री थे।) खण्डलवाल वश भूपण गोधा गोत्रीय माह रूपचन्द्र के सुपुत्र थे । माह रूपचन्द्र जेसे श्रीमन्त थे वैसे ही समुदार, दाता, गुणज्ञ और जिनपूजन में तत्पर रहते थे।
अप्टापद शैल पर जिस तरह भरत चक्रवर्ती ने जिनालयों का निर्माण कराया था, उसी तरह साह नान ने भी मम्मेद गैल पर निर्वाण प्राप्त वीस तीर्थकगे के मन्दिर बनवाये थे और उनकी अनेक बार यात्रा भी की थी।
पंडित रूपचन्द्र यह कुह नाम के देश में स्थित म नेमपुर के निवामी थे। आप अग्रवाल वश के भूषण और गर्ग गोत्री थे। अापके पितामह का नाम मामट ओर पिता का नाम भगवानदास था। भगवानदास की दो पत्नियाँ थी। जिनमें प्रथम मे ब्रह्मदाम नाम के पुत्र का जन्म हुआ। पोर मरी 'चाचा' मे पात्र पुत्र समुत्पन्न हुए थे-हरिगज, भूपति, अभयगज, कीर्ति चन्द्र और रूपचन्द्र। इनमें अभिम रूपचन्द्र हो प्रसिद्ध कवि थे और जैन सिद्धान्त के अच्छे मर्मज्ञ विद्वान थे । वे ज्ञान प्राप्ति के लिये बनारम गरे थे पोर वहाँ से शब्द अर्थ रूप सुधारम का पान कर दरियापर में लौटकर आये थे। दरियापुर वर्तमान में वाराबंकी और अयोध्य के मध्यवती स्थान में वसा हुआ है, जिसे दरियाबाद भी कहा जाता है। वहाँ आज भी जैनियों की बस्ती है और जिन मन्दिर बना हया है।
हिन्दी भाषा के प्रसिद्ध कवि बनारसी दास जी ने अपने 'अर्धकथानक' में लिखा है कि संवत १६६२ में
१. शने पोडशा कोन षष्ठिवत्सरके शुभे ।
माये शुक्लेऽपि पंचम्या वितं भृगुवासरे ॥६१-यशोधर च० प्र० २. राजाधिगजोऽत्र तदा विभाति श्रीमान मिहो जित वैग्विर्ग ।
अनेकगजेन्द्र विनम्यपादः म्वदान मर्पित विश्वलोकः ॥ प्रतार सूर्य म्नपतीह यस्य द्विषां शिरस्मु प्रविधाय पाद । अन्याय-दुध्यन्ति मयास्य दूरं यथाकरं यः प्रविकागयेच्च ।।६३ तथैव गज्ञोऽस्ति महानमात्यो नान सुनामा विदिनो धरित्र्या।" 1. सम्मेद शृ'गे च जिनेन्द्र गेहमष्टापदे वादिम चक्रधारी ॥६४
यो कारयद्यत्र च तीर्थनाथाः सिद्धि गता विशति मानभुक्ताः।"
-यशोधर
यशोधर च०प्र०