________________
१६०
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
इस काव्य पर योगिराट पंडिताचार्य नाम के किसी विद्वान को एक संस्कृत टीका है। जो संभवतः १५वी शताब्दी के अन्तिम चरण का विद्वान था। टीका में जगह जगह 'रत्नगाला' नामक कोष के प्रमाण दिये हैं। रत्नमाला का कर्ता इरुगदण्डनाथ विजय नगर नरेश हरिहरराय के समय शक मं. १३२१ (वि. सं. १४५६) के लगभग हुप्रा है। अतः पण्डिताचार्य उसके बाद के विद्वान होना चाहिये । काव्य के प्रत्येक सर्ग के अन्त में जिनसेन को अमोघवर्ष का गुरु बतलाया गया है।
पुन्नाट संघीय जिनसेन ने शक सं. ७०५, (सन् ७८३) में पाश्र्वाभ्युदय काव्य का हरिवंशपुराण के निम्न पद्य में उल्लेख किया है :
याऽमिताभ्युदये पार्वे जिनेन्द्रगुणसंस्तुतिः ।
स्वामिनो जिनसेनस्य कीति संकीर्तयत्यसौ ॥ अतः पाश्र्वाभ्युदय काव्य शक सं० ७०५ (वि० स० ८४०) से पूर्व रचा गया है । अर्थात् शक सं० ७०० में इसकी रचना हुई है।
प्रादिपुराण-प्राचार्य जिनसेन ने त्रेसठशाला का पुरुपों के चरित्र लिखने की इच्छा से 'महापुराण' का पारम्भ किया था। किन्तु बीच में ही स्वर्गवास हो जाने के कारण उनकी वह अभिलाषा पूरी नहीं हो सकी। और महापुराण अधूरा ही रह गया। जिसे उनके शिष्य गुणभद्र ने पूरा किया। महापुराण के दो भाग हैं । प्रादि पुराण और उत्तर पुराण । प्रादि पुराण में जैनियों के प्रथम तीर्थकर आदि नाथ या ऋषभ देव का चरित वर्णित है । और उत्तर पुराण में अवशिष्ट २३ तीर्थकरी ओर शलाका पुरुषों का। आदि पुराण में ४७ पर्व और बारह हजार श्लोक है। इनमें जिनसेन ४२ पर्व पूरे और ४३ वे पर्व के ३ श्लोक ही बना सके थे कि उनका स्वर्गवास हो गया। तब शेष चार पर्वो के १६२० श्लोक उनके शिप्य गुणभद्र के बनाये हरा हैं।
आदि पुराण उच्च दर्जे का संस्कृत महाकाव्य है। प्राचार्य गुणभद्र ने उसकी प्रशंसा करते हुए लिखा है कि-'यह सारे छन्दों और अलंकरों को लक्ष्य में रखकर लिखा गया है। इसको रचना सूक्ष्म अर्थ और गढ़ पद वाली है। उसमें बड़े बड़े विस्तृत वर्णन हैं जिनके अध्ययन से सब शास्त्रों का साक्षात् हो जाता है। इसके सामने दसरे काव्य नहीं ठहर सकते, यह पव्य है, और व्युत्पन्न बुद्धिवालों के द्वारा ग्रहण करने योग्य है और कवियों के मिथ्या अभिमान को दलित करने काला है, अतिशय ललित है।
जिनसेन का यह आदि पुराण सुभाषतों का भंडार है । जिस तरह समुद्र बहुमूल्य रत्नों का उत्पत्ति स्थान है, उसी तरह यह पुराण सूक्त रत्नों का भंडार है, जो अन्यत्र दुर्लभ हैं ऐसे सुभाषित इसमें सुलभ हैं। और स्थान स्थान से इच्छानुसार संग्रह किये जा सकते हैं।
प्राचार्य जिनसेन ने प्रादि पुराण की उत्थानिका में अपने से पूर्ववर्ती अनेक प्रसिद्ध कवियों और विद्वानो का अनेक विशेषणों के साथ स्मरण किया है । १. सिद्धसेन २. समन्तभद्र ३. श्रीदत्त ४. प्रभाचन्द्र ५. शिवकोटि ६. जराचार्य ७. काणभिक्ष. देव (देवनन्दि) ६. भट्टाकलंक १०. श्रीपाल ११. पात्र केशरी १२. वादिसिंह १३. वीर सेन १४. जयसेन १५. कवि परमेश्वर । इन सब विद्वानों का परिचय यथा स्थान दिया गया है।
जयघवलाटीका
कसाय प्राभत के प्रथम स्कन्ध की चारों विभक्तियों पर 'जयघवला नाम की बीस हजार श्लोक प्रमाण सीका लिख कर प्राचार्य वीरसेन का स्वर्गवास हो गया। अतः उनके शिष्य जिनसेनाचार्य ने अवशिष्ट भाग पर
२. 'सकलच्छंदोलंकृति लक्ष्यं सूक्ष्मार्थ गूढपदरचनम् ॥१७ 'व्यावर्णनोरुमारं साक्षात्कृतसर्वशास्त्रमद्भरावम् ।
आहस्तितान्य काव्यं श्रव्यं व्यत्पन्नमतिभिगदेयम् ॥१८ 'जिनसेन भगवतोक्तं मिथ्याकवि दर्पदलनमति ललितम् ।।१६
-उत्तर पुराण प्रशस्ति