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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २
लंकारों का भी संक्षिप्त वर्णन पाया जाना इस काव्य की अपनी विशेषता है। ग्रन्थ में अनेक सूक्तियां दी हुई हैं। जिन से ग्रन्थ सरस हो गया है। उदाहरणार्थ यहां तीन सूक्तियों को उद्धृत किया जाता है—
१ प्रसिधारा पण को गच्छइ - तलवार की धार पर कौन चलना चाहता है ।
२ को भूयदंडहि सायकलं घहि - भुजदंड से सागर कौन तरना चाहेगा ।
३ को पंचाणण सुत्त खवलइ - सोते हुए सिंह को कौन जगायगा ।
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इस रूपक काव्य में कामदेव राजा, मोह मन्त्री और प्रज्ञान आदि सेनापतियों के साथ भावनगर में राज्य करता है | चारित्रपुर के राजा जिनराज के उसके शत्रु हैं, क्योंकि वे मुक्ति रूपी लक्ष्मी (सिद्धि) के साथ अपना विवाह करना चाहते हैं । कामदेव ने राग-द्व ेष नाम के दूत द्वारा जिनराज के पास यह सन्देश भेजा कि श्राप या तो मुक्तिकन्या से विवाह करने का अपना विचार छोड़ दें, और अपने ज्ञान दर्शन- चरित्र रूप सुभटों को मुझे सौंप दें, अन्यथा युद्ध के लिए तैयार हो जायें । जिनराज ने कामदेव से युद्ध करना स्वीकार किया और अन्त में कामदेव को पराजित कर अपना विचार पूर्ण किया ।
ग्रन्थ का कथानक परम्परागत ही है, कवि ने उसे सुन्दर बनाने का प्रयत्न किया है। रचना का ध्यान से समीक्षण करने पर शुभचन्द्राचार्य के ज्ञानार्णव का उस पर प्रभाव परिलक्षित हुआ जान पड़ता है । इससे इस ग्रन्थ की रचना ज्ञानार्णव के बाद हुई है । ज्ञानार्णव की रचना वि० की ११वीं शताब्दी की है। उससे लगभग दो सौ वर्ष बाद 'मयण पराजय' की रचना हुई जान पड़ती है ।
इस ग्रन्थ की एक प्रति सं० १५७६ की लिखी हुई आमेर भंडार में सुरक्षित है। और दूसरी प्रति सं० १५५१ के मगशिर सुदिष्टमी गुरुवार की प्रतिलिपि की हुई जयपुर के तेरापंथी बड़े मन्दिर के शास्त्र भण्डार में उपलब्ध है । इस कारण यह ग्रन्थ की सं० १५५१ के बाद की रचना नहीं हैं। पूर्व की है । अर्थात् विक्रम की १३वीं शताब्दी के द्वितीय तृतीय चरण की रचना जान पड़ती है ।
यशःकीर्ति-यशः कीर्ति नाम के अनेक विद्वान हो गए हैं' । प्रस्तुत यश: कीर्ति उन सबसे भिन्न जान पड़ते हैं । इन्होंने अपने को 'महाकवि' सूचित करने के अतिरिक्त अपनी गुरु परम्परा और गण-गच्छादि का कोई उल्लेख नहीं किया । इनकी एक मात्र कृति 'चंदप्पह चरिउ' है जिसमें ११ सन्धियां और २२५ कडवक है, जिनमें आठवें तीर्थकर चन्द्रप्रभ जिनका जीवन-परिचय अंकित किया गया है। ग्रन्थ का गत चरितभाग बड़ा ही सुन्दर और प्रांजल है । इसका अध्ययन करने से जहां जैन तीर्थकर की आत्म-साधना की रूप रेखा का परिज्ञान होता है वहां आत्म-साधन की निर्मल भांकी का भी दिग्दर्शन होता है । कवि ने तीर्थकर के चरित को काव्य-शैली में अंकित किया है, किंतु साध्य चरित भाग को सरल शब्दों में रखने का प्रयास किया है । र अन्तिम ११वी सधि में तीर्थकर के उपदेश का चित्रण
१. प्रस्तुत यशःकीति गोपनन्दी के शिष्य थे, जो स्याद्वादतर्क रूपी कमलों को विकसित करने वाले सूर्य थे । बौद्ध वादियों
के विजेता थे । सिंहलाधीशने जिनके चरण कमलों की पूजा की थी। (जैन लेख सं० भा०१ लेख ५५ )
२. दूसरे यशःकीर्ति वागड संघ के भट्टारक विमलकीति के शिष्य और रामकीर्ति के प्रशिष्य थे ।
के शिष्य और शुभचन्द्र के गुरु थे ।
३. तीसरे यशः कीर्ति मूलसंघ के भट्टारक पद्मनन्दी के प्रशिष्य, भ० सकल कीर्ति ४. चोथे यशःकीति काष्ठासंघ माथुरान्वय पुष्करगरण के भ० सहस्रकीर्ति के प्रशिष्य, तथा भ० गुणकीर्ति के शिष्य, लघुभ्राता एवं पट्टधर थे । यह ग्वालियर के तोभर वंशी राजा डूंगरसिंह के राज्य काल में हुए है, इनक समय सं० १४८६ से १५२० तक है । इनकी अपभ्रंश भाषा की ४ रचनाएँ उपलब्ध हैं पाण्डवपुराण (१४९७) हरिवंशपुराण ( १५००) रविव्रत कथा, और जिन रात्रि कथा ।
पांचवें यशःकीति भ० ललितकीति के शिष्य थे, धर्मशर्माभ्युदय की 'सन्देह ध्वान्त दीपिका' नाम की टीका के कर्ता हैं ! छठवें यशः कीर्ति जगत्सुंदरी प्रयोग माला के कर्ता हैं ।