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वीर शासन
समवसरण की महत्ता और प्रभुता को देखकर ऐसा कौन व्यक्ति होगा, जो प्रभावित हए बिना न रहता। उनका छत्रत्रय तीन लोक की प्रभुता को व्यक्त कर रहा था। सौधर्म और ईशान इन्द्र चमर ढोल रहे थे, और
द्र जय-जय शब्दों का उच्चारण कर रहे थे। फिर भी भगवान वर्द्धमान उस विभूति से चार अंगुल ऊपर अन्त रिक्ष में विराजमान थे। वे उस विभूति से अत्यन्त निस्पृह दिखाई दे रहे थे। उनकी यह निस्पृहत्ता प्रात्म-बोध और वैराग्य की जनक थी।
इन्द्रभूति ने भाइयों और शिष्यों के साथ समवसरण की महत्ता का अवलोकन किया। उसे अपनी विद्या का बड़ा अभिमान था। वह अपने सामने किसी दूसरे को विद्वान मानने के लिए तैयार न था। किन्तु जब वह समवसरण में प्रविष्ट हुआ, तब मानम्तम्भ देखते ही उसका सब अभिमान गल गया और मन मार्दव भावना से ओतप्रोत हो गया। मन में भगवान के प्रति आदर भाव जागृत हुआ । और आन्तरिक विशुद्धि के साथ वह समवसरण के भीतर प्रविष्ट हया। उसने दिव्यात्मा महावीर को देखते ही भक्ति से नमस्कार किया, तीन प्रदक्षिणाएं दीं, उस समय उसका अन्तःकरण विशुद्धि से भर रहा था । आन्तरिक वैराग्य भावना ने उसे प्रेरित किया, और उसने पाँच मटिठयों से अपने केगों का लोंच किया और वस्त्राभपण के त्यागपूर्वक अपने भाइयों और पाँच-पाँच सौ शिष्यों के साथ संयम धारण किया' -यथा जात दिगम्बर मुद्रा धारण को और वह गौतम गोत्री इन्द्रभूति भगवान महावीर का प्रथम गणधर बना, और अग्निभूति वायुभूति भी गणधर पद से अलवृत हुए। दीक्षा लेते ही इन्द्रभूति मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्ययरूप ज्ञानचतप्टय मे भूपित हा। उनका जीव-विपयक सन्देह भी दूर हो गया, और तपोबल से उन्हे अनेक ऋद्धियां (विशेप शक्तियाँ) प्राप्त हुई। वे अणिमादि सप्त ऋद्धिसम्पन्न मप्त भय रहित, पचेन्द्रियविजयी, परीपह सहिष्ण, और पट जीव निकाय के सरक्षक थे। वे प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानयोग रूप चार वेदों में अथवा साम, ऋक, यजू और अथर्व वेदादि में पारगत तथा विशुद्ध शील से सम्पन्न थे। भावथतरूप पर्याय से बुद्धि की परिपक्वता को प्राप्त इन्द्रभूति गणधर ने एक मुहर्त में बारह अंग और चौदह पूों की रचना की। जैसा कि तिलोय पण्णत्ती की निम्न गाथानों से प्रकट है :
'विमले गोदमगोत्ते जादेण इंदभूदि णामेण । चउवेदपारगेणं सिस्मेण विमुद्धमीलेण ।। भावसुदपज्जयेहि परिणदमयिणा अवाग्मंगाणं ।
चोद्दस पुव्वाण तहा एक्कमुहुनेण विरचिणा विहिदो ।। -तिलो० प० १७८-७९
इन्द्रभूति को भगवान महावीर के सान्निध्य से तथा विशुद्धि और तपोबल में ऐमी अपूर्व सामर्थ्य प्राप्त हई, जिससे उन्हें मर्वार्थसिद्धि के देवों से भी अनन्तगुणा बल प्राप्त था, जो एक मुहूर्त में बारह अगों के अर्थ और द्वादशांगरूप ग्रन्थों के स्मरण तथा पाठ करने में समर्थ थे, और अमृताम्रव आदि ऋद्धियों के बल से हस्तपुट में गिरे हुए सब पाहारों को वे अमत रूप से परिणमाने में समर्थ थे तथा महातप गुण से कल्प वृक्ष के समान, एवं अक्षीण महानस लब्धि के बल से अपने हाथों में गिरे हए आहारों की अक्षयता के उत्पादक थे अघोरतपऋद्धि के माहात्म्य से जीवों के मन, वचन और कायगत समस्त कष्टों को दूर करने वाले, सम्पूर्ण विद्यानों के द्वारा जिनके चरण सेवित थे। आकाश चारण गुण से सब जीव समूहों की रक्षा करने वाले, वचन एवं मन से समस्त पदार्थों के सम्पादन करने में समर्थथे, अणिमादि अाठ गुणों के द्वारा सब देव समूहों को जीतने वाले, और परोपदेश के बिना अक्षर अनक्षर रूप सब भाषाओं में कुशल गणधर देव ग्रन्थकर्ता है । ऐसी दिव्य शक्तियों के धारक गणधर इन्द्रभूति भगवान महावीर के प्रथम गणधर बने। और उनके दोनों भाई भी गणधर पद से अलंकृत हुए। श्वेताम्बरीय आवश्यक निर्यक्ति में भी सभी गणधरों को द्वादश अंग और चौदह पूर्वो का धारक बतलाया है, भगवान महावीर के ग्यारह गणधर थे, जिनका परिचय प्रागे दिया गया है।
१. प्रत्येक सहिताः सर्वे शिष्याणा पञ्चभिःशतः ।
त्यक्ताम्बरादिसम्बन्धाः संयम प्रतिपेदिरे ।। (हरिवंश पु० २०६९) २. धवला पु०६ पृ० १२८