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१५वीं, १६वीं, १७वीं, भौर १८वीं शताब्दी के आचार्य, भट्टारक और कवि
कुशराज ग्वालियर के निवासी थे । उन्होंने राजा डुगरसिंह के पुत्र कीर्तिसिंह के राज्यकाल में ध्वजारों से अलंकृत जिनमंदिर का निर्माण किया था वह लोभ रहित और पर नारी से पराङ्मुख था । दुःखी दरिद्रीजनों का सपोषक था। उक्त सावयचरिउ (सम्यक्त्वकौमुदी) उसी की अनुमति से रचागया था । इसो से प्रत्येक संधि पुष्पिका वाक्य में-"संघाहिवइ कसराज अणमण्णिए' वाक्य के साथ उल्लेख किया गया हैं। इससे सावयचरिउ की रचना सं० १५१० के बाद हुई जान पड़ती हैं, क्योकि कीतिसिह सं० १५१० के बाद गद्दी पर बैठा था।
___ 'पासणाहपुराण या पासणाहचरिउ' में ७ सन्धियाँ और १३६ के लगभग कडवक हैं, जिनमें जैनियों के तेवीसवें तीर्थकर भगवान पार्श्वनाथ का जीवन-परिचय दिया हया है। पार्श्वनाथ के जीवन-परिचय को व्यक्त करने वाले अनेक ग्रंथ प्राकृत, संस्कृत और अपभ्र श भाषा में तथा हिन्दी में लिखे गये हैं। परन्तु उनसे इसमें कोई खास विशेषता ज्ञात नही होती। इस ग्रन्थ की रचना जो पुर (दिल्ली) के निवासी साह खेऊ या खेमचन्द की प्रेरणा से की गई है इनका वंश अग्रवाल और गोत्र एडिल था। मेमचंद के पिता का नाम पजण साहु, और माता का नाम बील्हादेवी था किन्तु धर्मपत्नी का नाम धनदेवी था उसमे चार पुत्र उत्पन्न हा थे, सहमराज, पहराज, रघपति, और, होलिवम्म । इनमें सहमराज ने गिरनार की यात्रा का मंघ चलाया था। माह मेमचन्द सप्त व्यसन रहित और देवशास्त्र गुर के भक्त थे। प्रशस्ति में उनके परिवार का विस्तृत परिचय दिया हुआ है। अतएव उक्त ग्रथ उन्ही के नामांकित किया गया है । ग्रन्थ की पाद्यन्त प्रगस्ति वढी ही महत्वपूर्ण है, उससे तात्कालिक ग्वालियर की सामाजिक धामिक, राजनैतिक परिस्थितियों का यथेष्ट परिचय मिल जाता है। और उसमे यह स्पष्ट जान पड़ता है कि उस समय ग्वालियर में जैन समाज का नैतिक स्तर बहत ऊंचा था, और वे अपने कर्तव्य पालन के साथ-साथ अहिमा, परोपकार और दयालुता का जीवन में प्राचरण करना श्रेष्ठ मानते थे।
ग्रन्थ बन जाने पर साहू खेमचन्द ने कवि रइध को द्वीपातर से आये हुए विविध वस्त्रों और प्राभरणादिक से सम्मानित किया था, और इच्छित दान देकर मंतृप्ट किया था।
'बलहद्दचरिउ' (पउमत्ररिउ) में ११ संधियाँ और २४० कडवक हैं जिनमें बलभद्र, (रामचन्द्र), लक्ष्मण और सीता आदि की जीवनगाथा अंकित की गई है, जिसकी श्लोक संख्या साढ़े तीन हजार के लगभग है। ग्रन्थ का कथानक बड़ा ही रोचक और हृदयस्पर्शी है। यह १५वी शताब्दी की जैन रामायण है। ग्रथ की शैली सीधी और सरल है, उसमें शब्दाडम्बर को कोई स्थान नहीं दिया गया, परन्तु प्रसगवश काव्योचित वर्णनों का सर्वथा अभाव भी नहीं है । राम की कथा बड़ी लोकप्रिय रही है । इससे इस पर प्राकृत संस्कृत, अपभ्रंश और हिन्दी में अनेक ग्रथ विविध कवियों द्वारा लिखे गए हैं।
यह ग्रन्थ भी अग्रवालवशी साहु बाटू के सुपुत्र हरसी साहु की प्रेरणा एवं अनुग्रह मे बनाया गया है । साह हरसी जिन शासन के भक्त और कषायों को क्षीण करने वाले थे। आगम और पुराण-ग्रन्थों के पठन-पाठन में समर्थ, जिन पूजा और सुपात्रदान में तत्पर, तथा रात्रि और दिन में कायोत्सर्ग में स्थित होकर आत्म-ध्यान द्वारा स्व-पर के भेद-विज्ञान का अनुभव करने वाले, तथा तपश्चरण द्वारा शरीर को क्षीण करने वाले धर्मनिष्ठ व्यक्ति थे। आत्मविकास करना उनका लक्ष्य था। ग्रन्थ की आद्य प्रशस्ति में हरसी साहू के कुटुम्ब का पूरा परिचय दिया हुआ है। ग्रन्थ में रचनाकाल दिया हुआ नहीं है।
_ 'मेहेसरचरिउ' में २३ संधियाँ और ३०४ कडवक हैं। जिनमें भरत चक्रवर्ती के सेनापति जयकुमार और उनकी धर्मपत्नी सुलोचना के चरित्र का सुन्दर चित्रण किया गया है। जयकुमार और सुलोचना का चरित बड़ा ही, पावन रहा है । ग्रन्थ की द्वितीय-तृतीय संधियों में प्रादि ब्रह्मा-ऋषभदेव का गृहत्याग, तपश्चरण और केवलज्ञान की प्राप्ति, भरत की दिग्विजय, भरत बाहुबलि युद्ध, वा हुबलि का तपश्चरण और कैवल्य प्राप्ति आदि का कथन दिया हुआ है । छठवीं सन्धि के २३ कडवकों में सुलोचनाका स्वयम्बर, सेनापति मेघश्वर (जयकुमार) का भरत चक्रवर्तीके पुत्र अर्ककीतिके साथ युद्ध करने का वर्णन किया है । ७वी सन्धि में सुलोचना और मेघेश्वर के विवाह का कथन दिया हुआ है । और ८वी से १३वीं संधि तक कुबेर मित्र, हिरण्यगर्भ का पूर्व भव वर्णन तथा भीम भट्टारक का निर्वाण गमन, श्रीपाल चक्रवर्ती का हरण और मोक्ष गमन, एवं मेघेश्वर का तपश्चरण, निर्वाण गमन आदि का