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भगवान महावीर के ग्यारह गणधर
इन्द्रभूति आदि भगवान महावार के ग्यारह गणधर हुये। ये सभी गणधर तप्त दीप्त आदि तप ऋद्धि धारक तथा चार प्रकार को बुद्धि ऋद्धि, वि क्रया ऋद्धि, अक्षाण ऋद्धि, मोपधि ऋद्धि, रस ऋद्धि प्रोर बल ऋद्धि से सम्पन्न थे। उनका नाम पोर परिचय यथाक्रम नीचे दिया जाता है :
प्राप्तसप्तद्धिसम्पद्धिः समस्तश्रुतपारगः । गणेन्द्ररिन्द्रभूत्याद्यरेकादशभिरान्वितः ॥४० इन्द्रभूतिरिति प्रोक्तः प्रथमो गणधारिणाम् । अग्निभूतिद्वितीयश्च वायुभूतिस्तृतीयकः ॥४१॥ शुचिदत्तस्तुरीयस्तु सुधर्मः पञ्चमस्ततः । षष्ठो माण्डव्य इत्युक्तो मौर्यपुत्रस्तु सत्तमः ॥४२।। अष्टमोऽकम्पनाल्यातिरचलो नवमो मतः । मेदार्यो दशमोऽन्त्यस्तु प्रभासः सर्वएव ते ॥४३॥ तप्तदीनादितपसः सुचतुर्बुद्धि विक्रियाः। प्रक्षीणौषधिलब्धीशाः सद्रसद्धिबलद्धयः ।।४।।
-हरिवंश पुराण ३।४०-४४ इन ग्यारह गणधरों की मब मिलाकर गण संख्या (शिय संख्या) चोदह हज़ार थी। इन चोदह हजार शिप्यों में से तीन सौ पूर्व के धारी, नौ सी विक्रिया ऋद्धि के धारक, तेरहमी अवधिज्ञानी, मातसौ केवलज्ञानी, पांचसौ विपुलमति मनःपर्ययज्ञान के धारक, चार मो परवादियों को जीतने वाले वादी, और नो हजार नौ सौ शिक्षक थे। ये सब साधु यात्म-शोधन तथा ध्यान में संलग्न रहते थे और कर्मशृङ्खला को तोड़ने वाली प्रान्म-सामर्थ्य को बढ़ा रहे थे। वीर शासन के सिद्धान्तों को जीवन में उतार रहे थे। उनमें कुछ आत्म-शुद्धि के लक्ष्य को प्राप्त करने का उपक्रम कर रहे थे। इन विद्वान् ओर मुमुक्षु गिप्यों में महावीर का शासन चमक रहा था। गण के नायक गणधरों का सक्षिप्त परिचय नीचे दिया जाता है :
इन्द्रभूति-के पिता का नाम वसुभूति था, जो अर्थसम्पन्न विद्वान और अपने गांव का मुखिया था और गोवर ग्राम का निवासी था। इनको जाति ब्राह्मण और गोत्र गौतम था । वमुभूति की दो स्त्रियाँ थी। पृथ्वी प्रोर केशरी। इनमें इन्द्रभूति को माता का नाम पृथ्वी देवी था। इन्द्रभूति का जन्म ईस्वी पूर्व ६०७ में हुआ था। यह व्याकरण, काव्य, कोप, छन्द, अलकार, ज्योतिष, सामुद्रिक, वैद्यक अोर वेद वेदांगादि चोदह विद्याओं में पारंगत था।' गौतम इन्द्रभूति की विद्वत्ता की धाक लोक में प्रसिद्ध थी। इसके ५०० शिष्य थे, जो अनेक विद्यानों में पारंगत थे । गौतम को अपनी विद्या का बड़ा अभिमान था। अपने से भिन्न दूसरे विद्वानों को वह हेय समझता था।
सौधर्म इन्द्र की प्रेरणा से इन्द्रभूति अपने भाइयों और अपने तथा उनके पाँच-पाँच सौ शिष्यों के साथ विपुलाचल पर महावीर के समवसरण में प्राया। समवसरण में प्रविष्ट होते हो उसने समवसरण के वैभव
१. देखो, हरिवंश पुराण, सर्ग ३ श्लोक में ४५ से ४६ पृ० २७
(भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित) २. विमले गोदमगोत्ते जादेणं इंदभूदिणामेणं । चउवेदपारगेणं सिस्सेण विसुद्धसीलेण ॥
-तिलो०प०१-७८
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