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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ दग्ध हैं। क्योंकि उनके द्वारा प्रतिपादित इष्ट तत्त्व प्रत्यक्ष प्रमाण से बाधित है। इस कारण भगवान प्राप ही निर्दोष हैं। पश्चात उन एकान्तवादों की-भावकान्त, अभावकान्त, उभयकान्त, प्रवाच्यतैकान्त, द्वैतैकान्त, प्रवर्तकान्त, पृथक्त्वकान्त, नित्यकान्त, प्रनित्यकान्त, क्षणिककान्त, देवकान्त, पौरुषकान्त, प्रादि की समीक्षा की गई है। और बतलाया है कि इन एकान्तों के कारण लोक परलोक, बन्ध, मोक्ष, पुण्य, पाप, धर्म अधर्म, देव पुरुषार्थ प्रादि की व्यवस्था नहीं बन सकती। प्राचार्य महोदय ने एकान्त वादियों को-जो सर्वथा एक रूप मान्यता के प्राग्रह में अनुरक्त है। उन्हे स्व-पर-बैरी बतलाया है। वे एकान्त पक्षपाती होने के कारण स्व-पर वैरी है। क्योकि उनके मत में शुभ अशुभ कर्मो, लोक परलोक आदि की व्यवस्था नही बन सकती। कारण वस्तु अनन्त धर्मात्मक है। उसमें अनन्त धर्म गुण स्वभाव मौजूद है । वह उनमें से एक ही धर्म को मानता है। अतएव अनेकान्त दष्टि ही सम्यग्दृष्टि है। और एकान्तदृष्टि मिथ्यादृष्टि है। इनकी सिद्धि स्याद्वाद से होती है। स्याद्वाद का कथन करते हए बतलाया है कि स्याद्वाद के विना उपादेय तत्त्वों की व्यवस्था भी नहीं बनती। क्योंकि स्याद्वाद सप्तभंग पौर नयों की अपेक्षा लिये रहता है। सापेक्ष और निरपेक्ष नयों का सम्बन्ध बतलाते हुए कहा है कि निरपेक्ष नय मिथ्या और सापेक्ष नय सम्यक् हैं और वस्तुतत्व की सिद्धि मे सहायक होते है। इस सबके विवेचन से ग्रन्थ की महत्ता का सहज ही बोध हो जाता है। ग्रन्थकार ने लिखा है कि यह ग्रन्थ हिताभिलाषी भव्य जीवों के लिये सम्यक और मिथ्या उपदेश के अर्थ विशेष की प्रतिपत्ति के लिये रचा गया है।
इस ग्रन्थ पर भट्टाकलक देव ने 'प्रष्टशती' नाम का भाप्य लिखा है जो पाठ सौ श्लोक प्रमाण है। और विद्यानदाचार्य ने 'अष्ट सहस्री' नाम की एक बड़ी टीका लिखी है, जो आज भी गूढ है जिसके रहस्य को थोडे ही व्यक्ति जानते है, जिसे देवागमालकृति तथा प्राप्त मीमासालंकृति भी कहा जाता है । देवागमालकृति में प्रा. विद्यानन्द ने अप्टशती को पूरा आत्मसात् कर लिया है। अष्टसहस्री पर एक सस्कृत टीका यशोविजय नामक श्वेताम्बरीय विद्वान की है और कि सरकृत टिप्पणी भी अभिनव समन्तभद्र कृत है चौथी टीका देवागमवृत्ति है, जिसके कर्ता प्राचार्य वसनन्दि है। प० जयचन्द जी छावड़ा जयपुर ने भी इसकी हिन्दी टीका लिखी है, जो अनन्तकीति ग्रन्थमाला बम्बई से प्रकाशित हो चुकी है । प० जुगलकिशोर जी मुख्तार ने भी देवागम की टीका लिखी है, जो वीर सेवा मन्दिर ट्रम्ट से प्रकाशित है।
स्वयंभूस्तोत्र-प्रस्तुत ग्रन्थ का नाम 'स्वयभूस्तोत्र' या 'चतुर्विशति जिन स्तुति' है जिस तरह कल्याण मन्दिर एकीभाव, भक्तामर और सिद्धिप्रिय स्तोत्रों के समान प्रारभिक शब्द की दृष्टि से स्वयभूस्तोत्र भी सुघठित है। इसमें वषभादि चतुर्विशति तीर्थकरो की स्तुति की गई है। दूसरों के उपदेश के बिना ही जिन्होने स्वय मोक्षमार्ग को जानकर और उसका अनुष्ठान कर अनन्तचतुष्टय स्वरूप-अनन्त दर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तमुख और अनन्त वीर्यरूप प्रात्म विकास को प्राप्त किया है उन्हे स्वयभू: कहते है। वृषभादि वीर पर्यन्त चतुविशति तीर्थकर अनन्त चतप्टयादि रूप आत्म-विकास को प्राप्त हुए है, अत स्वयम पद के स्वामी है । अतएव यह स्वयंभू स्तोत्र सार्थक सज्ञा को प्राप्त है।
प्रस्तुत ग्रन्थ समन्तभद्र भारती का एक प्रमुख अग है। रचना अपूर्व और हृदयहारिणी है। यद्यपि यह ग्रन्थ स्तोत्र की पद्धति को लिये हुए है इस कारण वह भक्तियोग की प्रधानता से प्रोत-प्रोत है। गुणानुराग को
१. स त्वमेवाऽसि निर्दोषो युक्तिशास्त्राविरोधिवाक् ।
अविरोधो यदिष्ट ते प्रसिद्धन न बध्यते ॥ त्वन्मतामृतबाह्यानां सर्वथैकान्तवादिनाम् । प्राप्ताभिमान दग्धानां स्वेष्टं दृष्टेन बाध्यते ॥ -प्राप्तमीमांसा ६-७ २. 'एकान्नग्रह स्तंषु नाथ | स्व-पर-वैरिषु, देवागम का०८ ३. इनीयामाप्तमीमांसा विहिताहितमिच्छता । सम्यग्मिथ्योपदेशार्थ-विशेष-प्रतिपत्तये ।। -देवागम का० ११४