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________________ १६२ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ उत्कीर्ण हुआ है। जिसमें-सं० ११५२ वैशाखसुदि पञ्चम्यां श्री काष्ठासंघ महाचार्यवर्य श्रीदेवसेन पादुका युगलम्" लेख अंकित है उसके भाग में एक खण्डित मूर्ति अंकित है जिसपर श्री देव (सेन) लिखा है। इस समय के साथ प्रस्तुत नरेन्द्रसेन का समय ठीक बैठ जाता है । अर्थात् प्रस्तुत नरेन्द्रसेन विक्रम की १२वीं शताब्दी के पूर्षि के विद्वान हैं। क्योंकि लाडवागड गण के जयसेन ने अपना 'धर्मरत्नाकर' सं०१०५५ में बनाकर समाप्त किया है। उनसे चौथी पीढी में प्रस्तुत नरेन्द्रसेन हुए हैं। यदि एक पीढ़ी का समय कम से कम २० वर्ष माना जाय तो तीन पीढियों का समय ६० वर्ष होता है, उसे १०५५ में जोड़ने पर सं०१११५ होता है। इसके बाद नरेन्द्रसेन का समय शुरु होता है। अर्थात् नरेन्द्रसेन सं० ११२० से ११६० के विद्वान ठहरते हैं। प्रन्य रचना इस समय इनकी दो कृतियां प्रसिद्ध हैं। एक सिद्धान्तसारसंग्रह और दूसरी कृति प्रतिष्ठादीपक है। सिद्धान्तसार संग्रह में १२ परिच्छेद या अधिकार हैं, जिनकी श्लोक संख्या १९२४ है । इस ग्रन्थ में गृद्धपिच्छाचार्य के तत्त्वार्थ सत्र का एक प्रकार से प्रकटीकरण है। इसके साथ ही अन्य अनेक बातों का संकलन किया गया है। प्रथम परिच्छेद में सम्यग्दर्शन का वर्णन है, और द्वितीय परिच्छेद में सम्यग्ज्ञान का निरूपण है। तीसरे परिच्छेद में सम्यक चारित्र का तथा अहिंसादि पंचव्रतों का कथन किया गया है। चौथे परिच्छेद में अन्य मतान्तरों का वर्णन किया है। पांचवें परिच्छेद में जीव तत्त्व का कथन किया है। और छठे परिच्छेद में नरक गति का वर्णन है। सातवे परिच्छेद के २३४ पद्यों में मध्यलोक का कथन किया है। प्रोर पाठवें परिच्छेद में १४६ पद्यों द्वारा गत्यनुवाद द्वार से जीवतत्त्व का निरूपण किया गया है। नौवं परिच्छेद के २२५ पद्यों में अजीव प्रास्रव और बंध तत्व का वर्णन किया गया है। १० वें परिच्छेद के १६६ पद्यों द्वारा निर्जरा और प्रायश्चित्त का निरूपण किया गया है। ११वें परिच्छेद के १०१ पद्यों में मोक्ष तत्व का वर्णन किया है और अन्तिम १२ वें परिच्छेद के ६१ पयों में केवलज्ञान की प्राप्ति के लिये आराधना का कथन किया है। इनकी दूसरी कृति प्रतिष्ठा दीपक है जिसे उन्होंने पूर्वाचार्यानुसार रचा है, और जो अभी अप्रकाशित है। ग्रन्थ के अन्त में प्रशस्ति नहीं है। इसमें जिनमन्दिर, जिनमूर्ति आदि के निर्माण में तिथि, नक्षत्र, योग मादि का वर्णन, तथा स्थाप्य, स्थापक और स्थापना का कथन किया है । उसके प्रारंभ के मंगल पद्य इस प्रकार हैं: विश्वविश्वम्भराभारधारि धर्मधुरन्धरः । देयाद्वो मङ्गलं देवो दिव्यं श्रीमुनिसुव्रतः ॥ नमस्कृत्य जिनाधीशं प्रतिष्ठासारदीपकम् । वक्ष्ये बुद्ध्यनुसारेण पूर्वसूरिमतानुगम् ।। अन्त में लिखा है सर्वग्रन्यानुसारेण संक्षेपातचितं मया। प्रतिष्ठादीपकं शास्त्र शोषयन्तु विचक्षणाः ।। कवि सिद्ध और सिंह कवि मिद्ध पंपाइय और देवण का पुत्र था । उसने अपभ्रंश भाषा में पज्जुण्ण चरिउ (प्रद्य म्नचरित) को रचना की थी, किन्तु वह ग्रन्थ किसी तरह खण्डित हो गया था और उसी अवस्था में वह सिंह कवि को प्राप्त हमा । कवि सिंह ने उसका समुद्धार किया था, जैसा कि निम्न वाक्य से प्रकट है: १. See Archeological Survey of India VoL २०P. 102 २. "पुरण पंपाइय देवण णंदणु भवियण यणाणंदणू। वुहयणजण पय पंकय छप्पउ, भणइ सिद्ध पणमिय परमप्पउ ॥"
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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