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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
राज्य काल में 'मुदमणचरिउ' अोर सकल विधिविधान काव्य की रचना की थी। उन्होंने अपने विद्यागुरु माणिक्यनन्दी को महापण्डित ओर त्रविद्य बतलाते हुए, उन्हे प्रत्यक्ष परोक्षरूप जल मे भरे ओर नयरूप चंचल तरग समूह से गभीर उत्तम सप्तभगरूप कल्लोल माला से भूपित, जिनशासनरूप निर्मल सरोवर मे युक्त और पण्डितों का चडामणि प्रकट किया है। प्रोर 'सुदमण चरिउ' की पुग्पिका में माणिक्य नन्दी का विद्यरूप में उल्लेख किया है जैसा कि उसके निम्न पृप्पिका वाक्य से प्रकट है:--"पत्थ सुदमण चणि पचणमोकारफल पायसयरे माणिक्यनदी तइविज्जसीम णयणदिणा रइए अमेममुर मथन णवेविवइमाण जिगण तनो विमग्रो पट्टणं णयरपत्थिनो पव्वयं समोसरण संगयं महापुराण आउच्छण इमाण कयवण्णणो णाम पढमो सधि समत्ती ॥" ।
माणिक्यनदी ने भारतीय दर्शन गास्त्र और अकलक देव के ग्रथां का दोहनकर जो नवनीतामत निकाला, वह उनकी दार्शनिक प्रतिभा का मद्योतक है । वे जैन न्यायकं आद्य मूत्रकार है। उनकी एक मात्र कृति 'परीक्षा मुख, सूत्र है, जो न्यायमूत्र ग्रथा में अपना अमाधारण स्थान और महत्व रखता है।
परीक्षा मुख-यह जैन न्याय का आद्यमूत्र ग्रन्थ है ज। छह अध्याया विभक्त है और जिसके मूत्रों की कुल सख्या २०७ है । ये सब मूत्र मरस, गभीर प्रार अर्थ गोरव को लिए हुए है। भारतीय वाङ्मय में साख्य सूत्र, योगसूत्र, न्यायसूत्र, वैशेषिकसूत्र, मीमासकमूत्र और ब्रह्ममूत्र आदि दार्गनिकमूत्र ग्रन्थ प्राचीन है। किन्तु जैन न्याय को सूत्र बद्ध करने वाला कोई ग्रन्थ उस समय तक नही था। अत: प्राचार्य माणिक्यनन्दी ने उस कमी को दूर कर इस सूत्र ग्रन्थ की रचना की है। इस ग्रन्थ में प्रमाण पार प्रमाणाभास का कथन किया गया है। अतः उनको यह कृति असाधारण पार अपूर्व है, ओर न्यायमूत्र ग्रथा मे अपना ग्वाम महत्व रखती है। किसी विषय में नाना यूक्तियों को प्रबलता ओर दुर्बलता का निश्चय करने के लिये जो विचार किया जाता है उसे परीक्षा कहते है। इस परीक्षामग्व के सूत्रों का आधार न्यायमूत्र आदि क माथ अकलक दव के लद्यास्त्रय, न्यार्यानिश्चय पोर प्रमाणसग्रह आदि है। इस सूत्र ग्रन्थ पर दिग्नाग के न्यायप्रवेश' और धर्म कीति के 'न्याय बिन्दु का भी प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। उत्तरवर्ती प्राचार्यो म बादिदेव मूरि के प्रमाण नय तत्त्वालोक अोर हेमचन्द्र की प्रमाण मीमामापर परीक्षामख अपना अमिट प्रभाव रखता है । जा अल्पाक्षरो वाला है, अदिग्ध, सारवान, गढ़ अर्थ का निर्णायक, निर्दोप तथा तथ्य रूप हो वह मूत्र कहलाता है। परीक्षामुग्व में सूत्र का उक्त लक्षण भलीभाति सटित है इस ग्रन्थ पर अनेक टीका ग्रन्थ लिखे गए है। उनमे इसकी महत्ता का स्पष्ट बोध होता है।
इस सूत्र ग्रन्थ पर माणिक्यनदी के शिप्य प्रमाचन्द्र ने १२ हजार श्लोक प्रमाण 'प्रमेय कमल मार्तण्ड' नाम की एक वृहत् टीका लिखी है । यह जैन न्याय शास्त्र का महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसका नाम ही इस बात का समूचक है कि यह ग्रन्थ प्रमेय रूपी कमलो के लिये मार्तण्ड (सूर्य) के समान है । प्रभाचन्द्र ने यह टीका भोजदेव के ही राज्य में बनाकर समाप्त की थी।
दूसरी टीका प्रमेयरत्नमाला अनन्तवीर्य की कृति है, जिसे उन्होंने उदार चन्द्रिका (चादनी) की उपमा दी है और अपनी रचना प्रमेय रत्नमाला को प्रमेय कमल मार्तण्ड के सामने खद्यान (जुगन) के समान बतलाया है । यह लघ टीका मक्षिप्त और प्रसन्न रचना शैली में है। इस पर सागर में गागर वाली कहावत चरितार्थ होती है।
तीसरी टीका 'प्रमेय रत्नालकार' है, जो भट्टारक चारकीति द्वारा परीक्षामख के सूत्रों पर लिखी गई है। भट्टारक चारु कीर्ति श्रवण बेलगोला के निवासी थे। देशीगण में अग्रणी थे । ग्रन्थ की पुष्पिका में इन्होंने अपने
१. विरुद्ध नाना युक्ति प्राबल्य दौरबल्यावधारणाय प्रवर्तमाना विचार. परीक्षा। -(न्यायदीपिका)
लक्षितम्य लक्षण मुपयद्यत न वत्ति विचार. परीक्षा। -तकंसंग्रह पदकृत्य । २. दग्या, अनकान्त। ३. अल्पाक्षर मसदिग्ध सारवद् गूढीगण्यम् । निर्दोष हेतुमत्तथ्य सूत्र मूत्रविदो विदुः ।
-प्रमय रत्नमाला टि पण पृ. ४. प्रभन्दुवचनादारचन्द्रिका प्रसरनि । मादृशाः क्वनु गण्यन्त ज्योतिरिङ्गण सन्निभा.-प्रमेय रत्नमाला । ५. श्री चारुकीनिधुर्यस्सन्तनुते पण्डिनार्यमुनिवयं । व्याख्या प्रमेयरत्नालकाराख्या मुनीन्द्रसूत्राणाम् ।