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ग्यारहवीं और बारहवी शताब्दी के विद्वान, आचा
२७६ को चारुकीति पण्डिताचार्य सूचित किया है। और ग्रन्थ के तीसरे श्लोक में गुरुमाणिक्य नन्दी मेरे हृदय में निरन्तर "हर्ष करे ऐसी आकाक्षा व्यक्त की है "हर्ष वर्षतु सन्तत हृदि गुरुमाणिक्यनन्दी मम ॥" परीक्षा मुख के समान इसमें भी छह परिच्छेद है। यह टीका प्रमेय रत्नमाला से आकार में बड़ी है। और इसमें कुछ ऐसे विषयो का भी प्रतिपादन है जो प्रमेयत्न माला में नही मिलते । यह रचना प्रमेय कमल मार्तण्ड प्रोर प्रमेय रत्नमाला के मध्य को कड़ी या सोपान है जिसके द्वारा न्यायशास्त्र के जिज्ञासु उस भवन पर आसानी से प्रारोहण कर सकते है। यह ग्रन्थ अभी अप्रकाशित है, इसकी प्रति जैन सिद्धान्त भवन पारा में उपलब्ध है।
परीक्षा मुख के स्वापूर्वार्थ व्यवसायान्मक ज्ञान प्रमाण' मूत्र पर लिखो गई शान्ति वर्गों को स्वतंत्र कृति प्रमेय कठिका है। यह ग्रन्थ पाच स्तवको में विभक्त है। इसमें प्रमेय रत्नमालान्तर्गत कुछ विशिष्ट विषय' का प्रतिपादन किया गया है। इस कारण इसे परीक्षा मुख की टीका नही कहा जा सकता । ग्रथ अभी अप्रकाशित है। यह प्रति भी जैन सिद्धान्त भवन आग में मोजद है। माणिक्य नन्दी वि की ११वी सदी के विद्वान है।
नयनन्दी यह प्राचार्य कुन्दकुन्द को परम्परा में होने वाले लोक्यनन्दी के प्रशिप्य पोर माणिक्यनन्दी के प्रथम विद्या शिप्य थे । इन्होंने अपनी कृति सुदर्शन चरित की प्रगस्ति में जो गुम परम्परा दो है वह महत्वपूर्ण है। प्रस्तुत नयनन्दी गजा भोज के गज्यकाल में हा है। इन्होंने वही पर विद्याध्ययन कर ग्रन्थ रचना की है। इनके दीक्षा गरु कौन थे, और यह कहा के निवामी थे, उनका जीवन-परिचय क्या है ? यह कुछ ज्ञात नही होता । कवि काव्य शास्त्र में निष्णात थे, माथ ही प्राकृत, मस्कृत और अपभ्रग भापा के विशिष्ट विद्वान थे। छन्द शास्त्र के। कवि ने धाग नगरी के एक जन मदिर के महा विहार में बैठकर अपना 'मुदमण चार उ' परमारवगी राजा भोज देव, त्रिभुवन नारायण के राज्य में वि० १० ११०० में बना कर समाप्त किया था । उसके राज्यकाल के शिलालेख स०१०७७ से ११०४ तक के पाये जाते है। जिसका राज्य राजस्थान में चित्तोड़ मे लेकर दक्षिण में कोकण व गोदावरी तक विस्तृत था।
सुदंसणचरिउ' अपभ्रशभापा का एक खण्ड काव्य है, जो महाकाव्यों की श्रेणी में रखने योग्य है। जहा ग्रन्थका चरित भाग रोचक और आकर्षक है वहाँ वह मालकार काव्य-कला की दृष्टि से उच्चकोटि का है। कवि ने उसे निर्दोपोर मरस बनाने का पूरा प्रयत्न किया है। ग्रन्थकार ने स्वय लिखा है कि गमायण में गम अोर मीता का वियोग तथा गोक जन्य व्याकुलता के दर्शन होते है, अोर महा भारत में पाण्डव तथा धृतराष्ट्रादि कोरवो के परम्पर कलह एव मारकाट के दृश्य अकित मिलते है। तथा लोक शास्त्र में भी कौलिक, चोर, व्याध आदि की कहानियाँ सनने में पाती है, किन्तु इस सुदर्शन चरित में ऐमा एक भो दोष नही है, जमा कि उसके निम्न वाक्य में प्रकट है :
रामो सीय-विनोय-सोय-विहरं संपत्तु रामायण, जादं पाण्डव-धायर? सददं गोत्त कली-भारहे। डेडा-कोलिय-चोर-रज्ज-गिरदा आहासिदा सुद्दये,'
जो एक पि सदसणस्स चरिदे दोसं समूब्भासिदं। कवि ने काव्य के प्रादर्श को व्यक्त करते हुए लिखा है कि रस ग्रार अलकार से युक्त कवि की कविता में जो रस मिलता है वह न तरुणिजनों के विद्रम समान रक्त अधरी में, न पाम्रफल में, न ईख में, न अमन में, न हाला (मदिर।) में, न चन्दन में न चन्द्रमा में ही मिलता है ।
१. परीक्षामुग्वमूत्रम्याथं विवृण्महे।
इति श्री शान्तिवरिंग विर्गचताया प्रमेय कष्ठिकाया .... स्तवक २. णिव विक्कम काल हो ववगएम एयारह सवच्छर-मएमु, तहि केवलीचरिउ अमयच्छोगा । रणयनदी विरयउ वित्थरेण ।
-मुदमणचरिउ ३. यो संजाद तरुणि अहरे विद्दमारत्तसोहे, गो माहारे भमियभमरे गोव पु डिच्छू डटे।
यो पीयूसे हलेखिहिणे चन्दणे ऐवचन्दे, सालकारे मुकइभरिणदे ज रस होदि कव्वे ।।