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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २
वीर्य, वरषेण, महामति वीरसेन, जिनसेन, विहंगसेन, गुणभद्र, सोमराज चतुर्मुख, स्वयंभू, पुष्पदन्त, श्रीहर्ष श्रीर कालिदास नाम के पूर्ववर्ती विद्वानों का उल्लेख किया गया है ।
कविने स्वयं अपनी रचना में प्रारणाल, दुवई (१२ -३) जंभिदिया उवखंडयं, गाथा और मदनावतार छंदों का प्रयोग किया है, किन्तु ग्रंथ में प्रधानता पद्धडिया की है ।
कवि ने रयणकरंडसावयायार की रचना सं० ११२३ में कर्ण नरेन्द्र के राज्यकाल में श्रीवालपुर में समाप्त की थी। यह कर्ण देव वही कर्ण देव ज्ञात होते हैं जो राजा भीमदेव के लघु पुत्र थे । प्रोर जिनका राज्यकाल प्रबन्ध चिन्तामणि के कर्त्ता मेरु तुरंग के अनुसार सं० ११२० से ११३६ तक उन्नीस वर्ष प्राठ महीना और इक्कीस दिन माना जाता है । इन दोनों रचनात्रों के प्रतिरिक्त कवि की अन्य रचनाएं अन्वेषणीय हैं, ग्रन्थ अभी अप्रकाशित है ।
चन्द्र कीर्ति
त - श्रतबिन्दु के कर्ता ) - चन्द्रकीर्ति और उनके ग्रन्थ 'श्रुतबिन्दु' का उल्लेख मल्लिषेण प्रशस्ति में पाया जाता है। यह प्रशस्तिलेख (५४) है जो शक सं० १०५० (सन् १९२८ ई० ) और वि० सं० १९८५ की फाल्गुण वदी तीज को उत्कीर्ण हुआ है, जिस दिन मुनि मल्लिषेण ने आराधना पूर्वक अपने शरीर का परित्याग किया था । चन्द्रकीर्ति का समय मल्लिषेण से सभवतः २५ वर्ष पूर्व मान लिया जाय, तो उनका समय वि० सं० १९६० के लगभग होना चाहिये ।
पद्यप्रभ मलधारी देव ने अपनी नियमसार की टीका में चन्द्रकीर्ति के दो पद्यों को उद्धृत किया है । एक पद्य पृ० ६१ में चन्द्रकीर्ति के नामोल्लेख के साथ दिया है
सकल करणग्रामालंबाद्विमुक्तमनाकुलं ।
स्वहित निरतं शुद्धं निर्वाणकारणकारणम् । शम-दममावासं मंत्रीदयादम मंदिरम् । निरुपममिदं वन्द्यं श्रीचन्द्र कीतिमुनेर्मनः ॥
दूसरा पद्य पृ० १४२ में 'तथा चोक्तं श्रुतवन्दी' (विन्वो) ' वाक्यों के साथ उद्धृत किया है ? जयति विजय दोषोऽमत्यंमत्येंन्द्रमौलि - प्रविलसदुरुमालायचतांघ्रिजिनेन्द्रः ।
त्रिजगदजगती यस्ये दृशौ व्य ेनुवाते सममिव विषमेष्वन्योन्यवृत्तिं निषेद्धुम् ॥
इससे स्पष्ट है कि चन्द्रकीर्ति का 'श्रुतबिन्दु नामका यह ग्रन्थ मल्लिपण और पद्यप्रभ मलाधारी देव के सामने मौजूद था । उसके बाद वह विनष्ट हो गया । ग्रन्थ भण्डारों में उसका अन्वेषण होना चाहिए ।
इस पद्य में बतलाया है कि जिनका मन सम्पूर्ण इन्द्रियों के ग्रामों रहित है, जो ग्राकुलता रहित अपने आत्मकल्याण में तत्पर है। निर्वाण के कारणभूत शुक्लध्यान की प्राप्ति का कारण है । समता और इन्द्रिय दमनता का मन्दिर है । दया और जितेन्द्रियता का घर है, उपमा रहित ऐसे चन्द्रकीर्ति गुरु का मन मेरे द्वारा वन्द्यनीय है ।
चन्द्रकीर्ति नाम के दूसरे विद्वान
यह माथुर संघ के विद्वान श्रीषेणसूरि के दीक्षित शिष्य थे । जो पण्डितों में प्रधान और वादिरूपी वन के लिये कृशानु (श्रग्नि ) थे । 'चन्द्रकीर्ति तपरूपी लक्ष्मी के निवास, प्रथिजन समूह की आशा पूरी करने वाले तथा
१. रायारह तेवीमा वाससया विक्कमस्स महि वइणो । जया गयाहु तया समाणिए सुंदरं रइयं ॥ कण्णणरिन्द हो रज्जसुहि सिरि सिरिबालपुरम्मि बुहदें ।
- बालपुर महि सिरियं रख दे एउ गंदउ कव्वु जयंणिदं
२. चन्द्रकीर्ति ने अपने शिष्यों पर अनुकम्पा करके श्रुतविन्दु ग्रन्थ की रचना की थी। देखो, शिलालेख का ३२ वां पद्य)
३. सिरि मेणसूरि पंडिय पहाणु, तहो सीसुवाइ कारणरण - किसाण ।
- षट्कर्मोपदेश प्रशस्ति, जैन ग्रभ्थ प्र० सं० भा० २ १४