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ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य
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दूसरे परवादिरूप हाथियों के लिये मृगेन्द्र (सिंह) थे। जैसा कि 'षट् कर्मोपदेश' के निम्न पद्य से प्रकट है
पुण दिक्खउ तहो तवसिरि-णिवास अत्थियण-संघ-वुह-पूरियासु ।
__ परवाइ-कुंभि-दारण-मइंदु, सिरिचन्दकित्ति जायउमुणिदु ॥ इन्हीं के छोटे सहोदर गणि अमरकीति उनके शिष्य हए थे। अमरकीति ने अपना षटकर्मोप देश और नेमिनाथ चरित सं० १२४७, और १२४४ में बना कर समाप्त किया था। अत: इनका समय भी विक्रम की १३वीं शताब्दी का द्वितीय चरण होना चाहिये, यह ईसा की १२वीं शताब्दी के विद्वान थे।
चन्द्रकोति तीसरे चन्द्रकीति मूल संघ देशियगण के विद्वान राउलत्रिभुवन कोर्ति के शिष्य कलयुगिगणधर मलधारी बालचद्र राउल के पूत्र चन्द्रकोति न सन् १२९८ ईसवी में स्वर्गलाभ किया । हेगोरे के भव्य लोगों के अग्रणियों ने उक्त मूनि की स्वर्ग प्राप्ति के उपलक्ष में स्मारक बनाया। (EC.XII chik Nayakan Hallite No 24 जैन लेख सं० भाग ३ लख नं० ५४५ पृ० ३८३
चन्द्रकोति चौथे चन्द्रकीति-काप्ठा संघ नन्दि तट गच्छ और विद्यागण के भट्टारक थे। यह ईडर गद्दी के पट्टधर भ० विद्याभूपण के प्रशिप्य अोर भ०श्रीभूपण के शिप्य थे। ईडर की गद्दी के पद स्थान सुरत डंग कल्लाल आदि प्रधान प्रधान नगरी में थे। उनमें से भ. चन्द्रकीति किस स्थान के पट्टधर थे। यह निश्चित रूप से नही कहा जा सकता । पर इतना अवश्य कहा जा सकता है कि वे ईडर के आस-पास के स्थान के भट्टारक रहे हैं । यह विद्वान होने के साथ कवि भी थे, और प्रतिष्ठादि कार्यों में दक्ष थे। इन्होंने अनेक मन्दिर ओर मतियों की प्रतिष्ठा करवाई थी। इनकी अनेक कृतियां उपलब्ध हैं । संस्कृत के अतिरिक्त हिन्दी में भी अनेक रचानएं पाई जाती है। यह १७ वी शताब्दी के विद्वान हैं। इन्होंने पार्श्व पुराण की रचना स० १६५४ में की है। ऋषभदेव पुराण पद्म पुराण, पंचमेरू पूजा आदि रचनाएं इनकी कही जाती है।
माघनन्दि सिद्धान्त देव प्रस्तुत माघ नन्दि सिद्धान्तदेव मल संघ कुन्दकुन्दान्वय देसियगण और पूस्तक गच्छ के सिद्धान्त विद्या निधि कूलचन्द्र देव के शिष्य थ, जो पण्डितजनों के द्वारा सेव्य और चारित्र चक्रेश्वर थे। । यह कोल्लापुर तीर्थ क्षेत्र के कर्ता थे। अताव कोल्हापूरीय कहलाते थे। यह कोल्लापुर (क्षुल्लकपुर) के निवासी थे । यह माघनन्दि
१. सद्वत्तः कुलचन्द्रदेव मुनिप स्सिद्धान्त विद्यानिधिः ।
तच्छिष्योजनि माघनन्दि मुनिपः कोल्लापुरे तीर्थकद्राद्वान्तार्णव पारगोऽचलघतिश्चारित्र चक्रेश्वरः ।।
-जन लेख सं० भा० १ ले० नं० ४०पू० २४ २. कोल्हापर दक्षिण महाराष्ट्र का एक शक्तिशाली नगर है। शिलालेखों और ग्रन्थ प्रशस्तियों में इसका नाम 'क्षल्लकपूर, मिलता है। यह जैनधर्म का केन्द्र रहा है। कोल्हापुर और उसके आस-पास के अनेक दि० जैन मन्दिर बनाये गये हैं। अनेक जैन मन्दिर इस समय वैष्णव सम्प्रदाय के अधिकार में हैं । यह दिगम्बर समाज का महान् विद्यापीठ था। इसमें त्यागीव्रती मुनियों के अतिरिक्त सामन्त और राजपुरुष भी शिक्षा प्राप्त करते थे। इस पर अश्वभृत्य, कदम्ब, राष्ट्रकूट, चालुक्य और शिलाहार राजाओं ने राज्य किया है। १३वीं शताब्दी में चालुक्यों से शिलाहारों ने राज्य छीन लिया था। शिलाहार नरेश जैनधर्म के उपासक थे। इनमें मारसिंह गवलगङ्गदेव, भोज, बल्लाल, गण्डारादित्य, विजयादित्य और द्वितीय भोज नाम के प्रतापी शासक हुए हैं। इनका राज्य सन १०७५ मे ११२६ ई० तक रहा है। इस समय भी यहाँ पर भट्टारकीय मठ मौजूद है। इन राजाओं से जैनमन्दिरों को अनेक दानप्राप्त हुए हैं।