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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २
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और वीरचन्द्र ) पांच शिष्य थे। इनका समय विक्रम की ११वीं शताब्दी के मध्य भाग से लेकर १२वीं शताब्दी के पूर्वार्ध तक है । कवि श्रीचन्द्र ने अपने को मुनि पंडित और कवि विशेषणों के साथ उल्लेखित किया है ।
कवि की दो रचनाएं उपलब्ध है । कथाकोष प्रौर रत्नकरण्ड श्रावकाचार ।
कथाकोष - कवि की प्रथम कृति जान पड़ती है । कथाकोश में त्रेपन सन्धियां हैं, जिनमें विविध व्रतों के अनुष्ठान द्वारा फल प्राप्त करने वालों की कथाओंों का रोचक ढंग से सकलन किया गया है । कथाएं सुन्दर और सुखद है । ग्रन्थ के प्रारम्भ में मंगल और प्रतिज्ञा वाक्य के अनन्तर ग्रन्थकार कहते हैं कि मैंने इस ग्रन्थ में वही कहा है जिसे गणधर ने राजा श्रेणिक या बिम्बसार से कहा था, अथवा शिवकोटि मुनीन्द्र ने भगवती प्राराधना में जिस तरह उदाहरणस्वरूप अनेक कथाओं के संक्षिप्त रूप प्रस्तुत किये हैं । उसी तरह गुरु क्रम मे और सरस्वती के प्रसाद से मैं भी अपनी बुद्धि के अनुसार कहता हूं। मूलाराधना में स्वर्ग और अपवर्ग के सुख साधन का - अथवा धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष रूप पुरुषार्थ चतुष्टय का - गाथाओं में जो अर्थ प्रूपित किया गया है उसी अर्थ को मैं कथाओं द्वारा व्यक्त करूंगा, क्योंकि सम्बन्ध विहीन कथन गुणवानों को रस प्रदान नहीं करता, अतएव गाथाओं का प्रकट अर्थ कहता हूं तुम सुनो।
ग्रन्थकार ने देह-भोगों की असारता को व्यक्त करते हुए ऐन्द्रिक सुखों को सुखाभास बतलाया है। साथ ही धन-यौवन और शारीरिक सौन्दयं वगैरह को अनित्य बतलाकर मन को विषय-वासना के ग्राकर्षण से हटने का सुन्दर एवं शिक्षाप्रद उपदेश दिया है और जिन्होंने उनको जीत कर प्रात्म-साधना की है उनकी कथा वस्तु ही प्रस्तुत ग्रन्थ का विषय है । इन कथाओं द्वारा कवि ने मानव हृदय में निर्वेदभाव उत्पन्न करने का प्रयत्न किया है। प्रस्तुत 'कथाकोश और हरिषेण की कथाओं में अत्यधिक समानता है, श्रीचन्द्र ने उससे पर्याप्त सहयोग लिया है। कवि ने ग्रन्थ में वंशस्थ, समानिका, पद्धड़िया, दुहडउ, (दोहा) मालिनी, प्रलिल्लह आदि छन्दों का प्रयोग किया है । इन छन्दों में संस्कृत के वर्णवृत्तों का प्रयोग हुआ है । जैसा कि निम्न उदाहरण से स्पष्ट है:"विविह रसरसाले, णेयको ऊहलाले । ललियवयणमाले, प्रत्थसंदोहसाले । भुवण-विदिद-णामे, सव्वदोसो वसामे इह खलु कहकोसे, सुन्दरे दिण्णतोसे ॥”
यह संस्कृत का मालिनी छन्द है । इसमें प्रत्येक पंक्ति में ८ और७ अक्षरों के बाद यति क्रम मे १५ अक्षर होते हैं । कवि ने प्रत्येक पक्ति को दो भागों में विभक्तकर यति के स्थान पर श्रीर पंक्ति की समाप्ति पर अन्त्यानुप्रास का प्रयोग कर छन्द को नवीन रूप दिया है ।
सौराष्ट्रदेश अणहिलपुर में प्रसिद्ध प्राग्वाट वंश के नीनान्वय कुल में समुत्पन्न सज्जनोत्तम सज्जन नाम का एक श्रावक था, जो धर्मात्मा था और मूलराज नृपेन्द्र की गोष्ठी में बैठता था । अपने समय में वह धर्म का एक आधार था उसका कृष्ण नाम का एक पुत्र था और जयन्ती नाम की एक पुत्री थी। जो धर्म कर्म में निरन, जनशिरो
१. गहर हो पयामिउ जिरावदरणा, संणिय हो प्रासि गरणवइरणा ।। frants मुरिगद जैमजए, कह कोसु कहिउ पंचम समए । निह गुरु कमेण अह मवि कमि, नियबुद्धि विसेसु नेव रहमि । महु देवि सराम सम्मुहिया, संभवउ समत्थु लोय महिया । भण्णहो मूलाराहगाहें, सग्गापवग्ग सुसाहरणहें ।
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गाहं सरिया मोहाउ, बहु कहउ अस्थि रंजिय जणउ । धम्मस्थ काम मोक्खावासयउ, गाहासु जासु संठियउ तउ । ताणत्थं भरिणऊण पुरउ, पुरणु कहमि कहाउ कयायरउ । धत्ता - संबंध विहरणु सव्व वि जागरसु न देइ गुणवन्तहं । तेरिय गााउ पर्याड वि ताउ कहमि कहाउ सुरांतहूं ॥