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कुन्दकुन्दाचार्य
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वे मूलसंघ के द्वितीय नेता थे । यद्यपि उन्होंने अपनी रचनाओं में अपने संघ का कोई उल्लेख नहीं किया । किन्तु उत्तरवर्ती प्राचार्यो ने अपनी गुरु परम्परा के रूप में या अन्य प्रकार से उनकी पवित्र कृतियों की मौलिकता के कारण या अपने संघ को 'मूलसंघ' श्रौर अपनी परम्परा को 'कुन्दकुन्दान्वय' सूचित किया है। वे ऐसा करने में अपना गौरव समझते थे । क्योंकि आचार्य कुन्दकुन्द ने भगवान जिनेन्द्र द्वारा उपदिष्ट समीचीन मार्ग का अनुपम उपदेश दिया था । साथ ही, उसे अपने जीवन में उतारकर भरत क्षेत्र में श्रुत की प्रतिष्ठा की थी । उन्होंने आत्मानुभूति के द्वारा केवलियों द्वारा प्रदर्शित ग्रात्ममार्ग का उद्भावन किया था, जिसे जनता भूल रही थी । यही कारण है कि आचार्य कुन्दकुन्द दिगम्बर जैन श्रमणों में प्रधान थे । आपकी प्राध्यात्मिक कृतियां अपनी सानी नहीं रखतीं और वे दिगम्बर श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदायों में समान रूप से आदरणीय मानी जाती हैं । उनकी आत्मा कितनी विमल थी, और उन्होंने कल्मष परिणति पर किस प्रकार विजय पाई थी, यह उनके तपस्वी जीवन से सहज ही ज्ञात हो जाता है ।
अटल नियम पालक
मुनि पुंगव कुन्दकुन्द जैन थे और अनशनादि बारह प्रकार के प्रवचनसार में जैन श्रमणों के मूलगुण
श्रमण परम्परा के लिये आवश्यकीय मूलगुण और उत्तर गुणों का पालन करते अन्तर्बाह्य तपों का अनुष्ठान करते हुए तपस्वियों में प्रधान महर्षि थे । उन्होंने इस प्रकार बतलाये हैं
वद समिदिदियरोधो लोचावस्सय मचेलमण्हाणं । खिदिरायणमदंतवणं ठिदिभोयण-मेगभतं च ॥ एवं खलु मूलगुणा समणारां जिणवरेहिं पष्णसं । तेसु
पमत्तो समणो छेदोवद्वावगो होदि । ( ३-७-८ )
पांच महाव्रत, पांच समिति, पांचइन्द्रियों का निरोध, केशलोंच, पट् आवश्यक क्रियाएं, अचेलक्य (नग्नता ) अस्नान, क्षितिशयन, श्रदन्त-धावन, स्थिति भोजन और एक भुक्ति ( एकासन) ये जैन श्रमणों में अट्ठाईस मूलगुण जिनेन्द्र भगवान ने कहे हैं। जो साधु उनके आचरण में प्रमादी हाता है वह छेदोपस्थापक कहलाता है ।"
ग्रामों नगरों में ससंघ भ्रमण
वे यथाजात रूपधारी महाश्रमण अनेक ग्रामों, नगरों में समंध भ्रमण करते थे, और अनेक राजाओं, महाराजाओं, महात्माओं, राजथं ष्टियों, श्रावक-श्राविकाओं और मुनियों के समूह मे सदा अभिवन्दित थे, परन्तु उनका किसी पर अनुराग और किसी पर विद्वेष न था । विकारी कारणों के रहने पर भी उनका चित्त कभी विकृत नहीं होता था, वे समदर्शी श्रमण जब गुप्ति रूप प्रवृत्ति में असमर्थ हो जाते थे, तब समिति में सावधानी से प्रवृत्त होते थे । क्योंकि उस समय भी वे अपने उपयोग की स्थिरता के कारण शुद्धोपयोग रूप संयम के संरक्षक थे, इसलिये समिति रूप प्रवृत्ति में सावधान साधु के बाह्य में कदाचित् किसी दूसरे जीव का घात हो जाने पर भी वह प्रमत्तयोग के प्रभाव में हिंसक नहीं कहलाता, क्योंकि शुभोपयोग प्रवृत्ति सयम का घात करने वाली अन्तरंग हिंसा ही है, उससे ही बन्ध होता है, कोरी द्रव्यहसा हिसा नही कहलाती, किन्तु प्रयत्नाचार रूप प्रवृत्ति करने वाला साधु रागादि भाव के कारण षटकाय के जीवों का विराधक होता है । परन्तु जो अपनी प्रवृत्ति में सावधान हैं- रागादिभाव से उनकी प्रवृत्ति अनुरंजित नहीं है, तब उसकी हलन चलनादि क्रियाओं से जीव की विराधना होने पर भी वह हिंसक नहीं कहलाता - वह जल में कमल की तरह उस कर्मबन्धन से निर्लेप रहता है- शुद्धोपयोग रूप अहिंसक भावना के बल
१. वन्द्यो वनुनुविन कैरिह कौण्डकुन्दः कुन्दप्रभाप्रग्यि - कीर्ति विभूषिताशः । यश्चारु चारण-कराम्बुज चञ्चरीकश्चक्रे श्रुतस्य भरते प्रयतः प्रतिष्ठाम् ॥
— जैन लेख सं० भा० १ पृ० १०२
२. यही मूलगुण मूलाचार मे भी बतलाए गए है। जो लोक में आचारंग रूप में प्रसिद्ध है ।