________________
पांचवीं शताब्दी से आठवीं शताब्दी तक के आचार्य
अन्यथानुपपत्येक लक्षणं लिङ्ग मङ्यते।
प्रयोग परिपाटी तु प्रतिपाद्यानुरोधतः ॥३ ये कारिकाएं कुमारनन्दि के वादन्याय की हैं। खेद है कि यह ग्रन्थ अप्राप्य है । इन उल्लेखों से स्पष्ट है कि कुमारनन्दि का वादन्याय नाम का कोई महत्वपूर्ण तर्क ग्रन्थ प्रसिद्ध रहा है। इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि कुमारनन्दि भट्टारक विद्यानन्द से पूर्ववर्ती है। और पात्रकेसरी से बाद के जान पड़ते हैं क्योंकि वादन्याय के उक्त पद्य में हेतु के अन्यथानुपपत्येक लक्षण का उल्लेख है ।
गंगवंश के पृथ्वीकोंगणि महाराज के एक दानपत्र में जो शकसं० ६९८ ई० सन् ७७६ में उत्कीर्ण हुआ है, उसमें मूलसंघ के नन्दिसंघस्थित चन्द्र-नन्दि को दिये गए दान का उल्लेख है। उसमें कुमारनन्दि की गुरु परम्परा दी है। यह प्रकलङ्क देव के पास-पास के विद्वान हैं, क्योंकि इनके वादन्याय पर सिद्धि विनिश्चय के जल्पसिद्धि प्रकरण का प्रभाव है।
उदयदेव यह मूल संधान्वयी देवगणशाखा के विद्वान थे। इन्हें 'निरवद्य पंडित' भी कहते थे। यह प्राचार्य पूज्यपादके शिष्य थे। इन्हें शक सं० ६५१ सन् ७५६ (वि० सं० ७८६) के फाल्गुन महीने को पूर्णिमा के दिन नेरूरगांव से प्राप्त ताम्रपत्र के अनुसार महाराजाधिराज विजयादित्य ने अपने राज्य के ३४ वे वर्ष में जब कि उसका विजय स्कान्धावार रक्तपूर नगर में था पलिकर नगर की दक्षिण सीमा पर बसे हए कर्दम गांव का दान' अपने पिता के पुरोहित उदयदेव पंडित को, जो पूज्यपादके शिष्य थे, पुलिकर नगर में स्थित शङ्ख जिनेन्द्र मन्दिर के हितार्थ दिया था।
सिद्धान्तकोति कन्दान्वय नन्दि संघ के विद्वान थे। जो सिद्धान्तवादी थे और वादिजनों से वन्द्यनीय थे। नया हुम्मच के राजा जिनदत्तराय के गुरु थे । जिनका समय सन् ७३० बतलाया गया है । (जैन लेख सं० भा०३ पृ० ५१८)
एलवाचार्य कौण्ड कुन्दान्वय के भट्टारक कुमारनन्दि के शिष्य थे। इनके शिष्य वर्धमान गुरु थे जिन्हें सन ०७ में 'वदणे गुप्पे' ग्राम श्री विजय जिनालय के लिए दिया गया था । अतएव इनका समय भी वही अर्थात सन २००से ८२० तक हो सकता है।
१. विद्यनन्द ने इस पद्य को "तथा चाभ्याधायि कुमारनन्दि भट्टारकः" वाक्य के साथ उद्धत किया है। २. देखो, जन लेख संग्रह भा० २ लेख न० १२१ पृ० १०६ ३. "एक पञ्चाशदुत्तर षट्छतेषु शकवर्षेस्वातीतेषु प्रवर्तमान विजय-राज्य मंवत्सरे चतुस्त्रिशे वर्तमाने श्री -रक्तपूरमधिवसति-विजय-स्कन्धावोर फाल्गुनमासे पौर्णमास्याम्" दिया हआ है।
(-इ. ए. ७ प्र० ११ नं. ३६ द्वितीयभाग) ४. श्री कुन्द-कुन्दान्वय-नन्दि-संघे योगीश-राज्येन मता......।
जाता महान्तो जित-वादि-पक्षा: चारित्र वेपागुणरत्न भूषाः ।) सिद्धान्तीति जिनदत्तराय प्रणत पादो जयतीद्ध योगः । सिद्धान्तवादी जिन वादी वन्द्यः ।।
जैनलेख सं० भा. ३ पृ. ५१८