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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास- भाग २
ब्रह्म साधारण यह मूलसंघ कुन्दकुन्दान्वयी भ० परम्परा के विद्वान हरिभूषण शिष्य नरेन्द्र कीर्ति के शिष्य थे। इन्होंने अपनी गुरुपरम्परा का निम्न प्रकार उल्लेख किया है :
सिरि कुन्दकुन्द गणि रयणकित्ति, पहसोम पोम गंदी सुवित्त ।
हरिभूसण सीसणरिदंकित्ति, विज्जाणंदिय सण धरित्ति ॥" रत्नकीर्ति, प्रभाचन्द्र, पद्मनन्दी, हरिभूषण शिष्य नरेन्द्र कीर्ति, और विद्यानन्द । कवि ने अपनी रचनाओं में रचनाकाल और रचना स्थल का कोई उल्लेख नही किया। कथा की यह प्रति वि० सं०१५०८ की लि इससे ग्रन्थ उक्त म०१५०८ से पूर्व रचा गया है। कवि का समय १५ वीं शताब्दी है।
इस कथा संग्रह में ८ कथाएं और अनुप्रेक्षा दी हुई है । कोकिला पंचमी, मुकुट सप्तमी, दुद्धारसिक था, आदित्यवार कथा, तीन चउवीसी कथा पुष्पांजलि कथा, निदुखसत्तमी कथा, निझर पंचमी कथा और अनुप्रेक्षा। प्रत्येक रचना के अन्त में निम्न पुष्प्पिका वाक्य दिया हुआ है।
'इति श्री नरेन्द्र कोति शिप्य ब्रह्म साधारण कृता अनुप्रेक्षा समाप्ता।'
इन कथानों में जैन सिद्धान्त के अनुसार व्रतों का विधान और उनके फल का विवेचन किया गया है। साथ ही व्रतों के आचरण का क्रम और तिथि आदि के उल्लेखों के साथ संक्षेप में उद्यापन विधि का उल्लेख किया है। यदि उद्यापन की शक्ति न हो तो दुगने वर्ष व्रत करने की प्रेरणा की है।
___ अन्तिम ग्रन्थ अनुप्रक्षा में अनित्यादि द्वादश भावनाओं के स्वरूप का दिग्दर्शन कराते हुए ससार और देहभोगों की असारता का उल्लेख करते हए आत्मा को वैराग्य की ओर आकृष्ट करने का प्रयत्न किया गया है।
कोइल पंचवी कथा :
पाठकों की जानकारी के लिए 'कोइल पंचमी' कथा का सार नीचे दिया जाता है-भरत क्षेत्र के कुरु जांगल देश में स्थित रायपुर नामक नगर में वीरसेन नाम के राजा राज्य करते थे। उसी राज्य में धनपाल सेठ अपनी भार्या धनमति के साथ सुख पूर्वक रहते थे। उनका पुत्र धनभद्र और पुत्रवधू जिनमति थी । जिनमति कुशल गृहिणी जिनपूजा और दानादि में अभिरुचि रखने बली थी, परन्तु उसकी सासु धनमति को जैन धर्म से प्रेम नही था। दोनों के बीच यही एक खाई का कारण था।
कालान्तर में धनपाल काल कवलित हो गया। कुछ समय वाद विषण्ण वन्दना धनमति भी चलवसी, और पापकर्म के कारण वह उसी घर में कोइल हुई । अतः दुर्भावशात् वह जिनमति के शिर में हमेंशा टक्कर मारकर उसे दु:खित करती रहती थी।
___एक दिन उस नगर में श्रुतसागर नाम के मुनिराज पाये, वे अवधिज्ञानी थे। धनभद्र और जिनमति ने उन्हें प्राहार देकर उनसे कोइल की गतिविधियों के सन्दर्भ में पंछा। तब मुनिराज ने बतलाया कि वह तम्हारी जननी है । मुनियों के आहार दान मे अन्तराय डालने के कारण वह कोइल हुई । पश्चात् मुनिराज ने संसार की प्रसारता का वर्णन किया, और बतलाया कि ५ वर्ष तक कोइल पंचमी व्रत का अनुष्ठान करो, प्राषाढ़ महीने के कृष्ण पक्ष में उपवासकरो, व्रत पूरा होने पर कार्तिक के कृष्ण पक्ष में उसका उद्यापन करो, उद्यापन में पांच पांच वस्तएं जिन मन्दिर में दीजिए उद्यापन की शक्ति न हो तो दुगुने दिन व्रत करना चाहिए।
यह सुन कर कोइल मूर्छित हो गयी, जल सिंचन से उसे सचेत किया गया प्रनंतर धर्मोपदेश सुनकर कोइल ने सन्यास पूर्वक दिवंगत हुई।
१. सं० १५०० वर्षे श्री मूलसंधे जिनचन्द्र देव खंडेलान्वये सावडा गोत्रे सा.पं० वीझा इयं कथानक अन्य लिखाप्य कर्मक्षय निमित्त प्रदत्त।