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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
द्रोधक- ता सिंचिय सीयल जलेण, विज्जिय चमर विलेण ।
उप्रिय सीयानल तविय, मयलिय अंजुजलेण ॥ ग्रन्थ की अन्तिम प्रशस्ति में हेमराज के परिवार का विस्तृत परिचय दिया है और ग्रन्थ उन्हीं के नामांकित किया है जैसा कि निम्न पुप्पिका वाक्य से प्रकट है:--
इय पंडव पुराण सयल जणमण सवण सहयरे सिरिगुणकित्ति सोस मुणि जसकित्ति विरइए साधु वोल्हा सत राय मंति हेमराजणामंकिए-................।'
हरिवंस पुराण-प्रस्तुत ग्रंथ में १३ सन्धियाँ और २६७ कडवक हैं। जो चार हजार श्लोकों के प्रमाण को लिए हए है । इसमें कवि ने भगवान नेमिनाथ और उनके समय में होने वाले यदुवंशियों का-कौरव पाण्डवादि का-संक्षिप्त परिचय दिया गया है। अर्थात महाभारतकालीन जैन मान्यता सम्मत पौराणिक आख्यान दिया हया है। ग्रन्थ में काव्यमय अनेकस्थल अलंकृत शैली से वणित हैं। उसमें नारी के बाह्यरूप का ही चित्रण नही किया गया किन्तु उसके हृदयस्पर्शी प्रभाव को अंकित किया है। कवि ने ग्रन्थ को पद्धडिया छन्द में रचने की घोषणा की है 'किन्तु प्रारणाल' दुवई, खंडय, जंभोट्टिया, वस्तुबध और हेलाआदि छन्दों का भी यत्र-तत्र प्रयोग किया गया है। ऐतिहासिक कथनों की प्रधानता है, परन्तु सभी वर्णन सामान्य कोटि के हैं उनमें तीव्रता की अभिव्यक्ति नही है। यह ग्रन्थ हिसार निवासी अग्रवाल वंशी गर्ग गोत्री माहु दिवड्डा के अनुरोध से बनाया गया था। साह दिवड्डा परमेष्ठी पाराधक, इन्द्रिय विपय विरक्त, सप्त व्यसन रहित, अप्ट मुलगणधारक, तत्त्वार्थ श्रद्धानी, अष्ट अंग परिपालक, ग्यारह प्रतिमा आगधक, और बारह व्रतों का अनुप्ठापक था, उसके दान-मान की यशः कीति ने खूब प्रशसा को है। कवि ने लिखा है कि मैंने इस ग्रन्थ की रचना कवित्त कीति और धन के लोभ से नही की है और न किसी के मोह से, किन्तु केवल धर्म पक्ष से कर्म क्षय के निमित्त और भव्यों के संबोधनार्थ की है। कवि ने दिवठा साह के प्रनरोध वश यह ग्रन्थ वि० सं० १५०० में भाद्रपद शुक्ला एकादशी के दिन इद उर (इन्द्रपूर) में जलालखां के राज्य में, जो मेवातिचीफ के नाम से जाना जाता है, की है । इसने शय्यद मुबारिक शाह को बड़ी तकलीफें दी थीं।
जिनरात्रि कथा में शिवरात्रि कथा की तरह भगवान महावीर ने जिस रात्रि में अवशिष्ट प्रघाति कर्म का विनाशकर पावापुर से मुक्तिपद प्राप्त किया था, उस का वर्णन प्रस्तुत कथा में किया गया है। उसी दिन और रात्रि में व्रत करना तथा तदनुसार प्राचार का पालन करते हुए प्रात्म-साधना द्वारा आत्म-शोधन करना कवि की रचना का प्रमुख उद्देश्य है।
रवि व्रत कथा में रविवार के व्रत से लाभ और हानि का वर्णन करते हुए रवि व्रत के अनुष्ठापक और उसकी निन्दा करने वाले दोनों व्यक्तियों की अच्छी-बुरी परिणतियों से निप्पन्न फल का निर्देश करते हुए व्रत की सार्थकता, और उसकी विधि प्रादि का सून्दर विवेचन किया है।
मुनि कल्याण कोति यह मूल संघ देशीयगण पुस्तक गच्छ के भट्टारक ललित कीर्ति के दीक्षित शिष्य थे। इनके विद्यागुरु कौन थे यह ज्ञात नहीं हुआ । भट्टारक ललित कीति कार्कल के मठाधीश थे । ललित कीति के गुरुदेव कीति । इन भट्टारकों
१. दाणेण जासु कित्ती पर उवयाग्सु सपया जस्स। णिय पुत्त कलत्त सहिउ गणंद उ दिवढाख्य इह भुवरणे॥ -हरिवंशपुराण प्र. भवियण सबोहरणहं णिमित्त , एउ गंथु किउरिणम्मल चित्त । उकवित्त कित्तहें घणलोहें, णउ कासुवरि पवडिय मोहें। x +
+ कम्मक्खय णिमित्त रिणरवेक्खे, विरइउ केवल पम्मह पक्खें। (जन ग्रंथ प्रशस्ति सं०भा०२ पृ. ४२) २. इंद उरहि एउ हुउ संपुण्णउ, रज्जे जलालखान कय उण्णउ । -वही प्रशस्ति सं०१ भा०२ प. ४२ ३.देखो, तबारीख मुबारिकशाही पु० २११
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