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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ स्पष्ट है कि वे भ० देवेन्द्र कीर्ति के द्वारा दीक्षित थे । इन्होंने अनेक मूर्तियों की प्रतिष्ठा की और करवाई।
इनका कार्य सं० १४६६ से १५३८ तक पाया जाता है। पट्टावली के अनुसार इन्होंने सम्मेदशिखर, चम्पा, पावा, ऊर्जयन्तगिरि (गिरनार) आदि सिद्ध क्षेत्रों की यात्रा की थी। ये अनेक राजाओं से-वजांग, गंगजय सिंह व्याघनरेन्द्र प्रादि से सम्मानित थे। इन्हें डा. हीरालाल जी ने प्रष्ट शाखा प्राग्वाट वंश, परवारवंश का बतलाया है। इनके द्वारा प्रतिष्ठित मूर्तियाँ हूमडवंशी श्रावकों की अधिक पाई जाती है।
भ० विद्यानन्दी के अनेक शिष्य थे-ब्रह्म श्रुतसागर, मल्लिभूषण, ब्रह्म प्रजित, ब्रह्म छाहड, ब्रह्म धर्मपाल प्रादि। श्रतसागर ने अनेक ग्रन्थों की रचना की, उन्होंने अपने गुरु का आदरपूर्वक स्मरण किया है। मल्लिभूषण इनके पट्टधर शिष्य थे । ब्रह्मअजित ने भडौंच में हनुमान चरित की रचना की । ब्रह्म छाहड ने सं० १५९१ में भडौंच में धनकमार चरित की प्रति लिखी । और ब्रह्म धर्मपाल ने स० १५०५ में एक मूर्ति स्थापित की थी ।
इनकी दो कृतियों का उल्लेख मिलता है-सुदर्शन चरित और सुकुमाल चरित ।।
सदर्शन चरित-यह संस्कृत भाषा में लिखा गया एक चरित ग्रन्थ है जो १२ अधिकारों में विभक्त है. मौर जिसकी श्लोक संख्या १३६२ है। प्रस्तुत ग्रन्थ में सुदर्शन मुनि के चरित के माध्यम से णमोकार मंत्र का माहात्म्य प्रदर्शित किया गया है। मुनि सुदर्शन तीर्थकर महावीर के पांचवें अन्तकृत् केवली माने गये हैं। इनकी सबसे बडी विशेषता है कि इन्होंने घोर तपस्या करते हए नाना उपसर्गो को सह कर उसी भव में केवलज्ञान प्राप्त कर स्वात्म लब्धि को प्राप्त किया है।
ग्रन्थ में सुदर्शन मुनि के पांच भवों का वर्णन सरल संस्कृत पद्यों में किया गया है। णमोकार मन्त्र के प्रभाव से बालक गोपाल ने सेठ सुदर्शन के रूप में जन्म लिया, खूब वैभव मिला, किन्तु उसका उदासीन भाव से उपभोग किया । घोर यातनाएं सहनी पड़ी, पर उनका मन भोग विलास में न रमा, प्रोर न परीषह उपसर्गों से भी रंचमात्र विचलित हए । आत्म संयम के उच्चादर्श रूप में वीतरागता और सर्वज्ञता प्राप्त कर अन्त में शिवरमणी को
सुदर्शन की यह पावन जीवन-गाथा प्राकृत संस्कृत और अपभ्रंश के ग्रन्थों में अकित की गई है। दूसरी रचना सुकुमाल चरित्र को मुमुक्षु विद्यानन्दी की कृति बतलाया है, देखो, टोडारायसिह भण्डार मची. जैन सन्देश शोधांक १० पृ० ३५६ । ग्रन्थ सामने न होने से इसके सम्बन्ध में कुछ लिखना सम्भव नहीं है। इनका समय विक्रम की १६वीं शताब्दी है।
भट्टारक श्रुतकीर्ति श्रुतकीति नन्दि संघ बलात्कारगण सरस्वती गच्छ के विद्वान थे। यह भट्टारक देवेन्द्रकीति के प्रशिष्य र निभवन कीति के शिष्य थे। ग्रन्थकर्ता ने भ० देवेन्द्रकीति को मृदुभाषी और अपने गुरु त्रिभुवनकीति को प्रमत वाणी रूप सद्गुणों के धारक बतलाया है। श्रुतकीति ने अपनी लघुता व्यक्त करते हए अपने को अल्प बदि बतलाया है। कवि को उक्त सभी रचनाएं वि० सं० १५५२ और १५५३ में रची गई हैं और वे सब रचनाएं मांडवगढ (वर्तमान मांड) के सुलतान गयासुद्दीन के राज्य में दमोवा देश के जेरहट नगर के नेमिनाथ मन्दिर में रची गई हैं।
इतिहास से प्रकट है कि सन् १४०६ में मालवा के सूबेदार दिलावर खां को उसके पुत्र अलफ खां ने विष देकर मार डाला था, मोर मालवा को स्वतन्त्र उद्घोषित कर स्वयं राजा बन बैठा था। उसकी उपाधि हशंगसाह
१. सं० १५१३ वर्षे वैशाखसुदी १० बुधे श्री मूलसंषे बलात्कारगणे सरस्वती गच्छे भ. श्रीप्रभाचन्द्रदेवाः तत्पटे भ. पयनन्दी ततशिष्य श्री देवेन्द्रकीति दीक्षिकार्य श्री विद्यानन्दी गुरूपदेशात् गांधार वास्तव्य हुबह ज्ञातीय समस्त श्री संघेन कारापित मेरुशिखरा कल्याण भूयात् ।
(सूरत दा० मा०प० ४३) २. जन सि. भा० १० १० ५१ 1. भट्टारक सम्प्रदाय पृ० १६