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तेरहवीं और चौदहवी शताब्दी के विद्वान, प्राचार्य और कवि
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भूषण थे । इन्होंने अपने को 'स्याद्वाद चूड़ामणि' लिखा है। इसकी एक मात्र कृति गुणभूपण श्रावक चार है । जिसे भव्य जिन चित्त वल्लभ' भी कहा जाता है। इस ग्रन्थ को कवि ने पुरपाट वशी जोमन और नामदेवी के पुत्र नेमिदेव के लिये बनाया था। जो गुणभूषण के चरणों का भक्त था। जोमन के दूसरे पुत्र का नाम लक्ष्मण था । जैसा कि ग्रन्थ के निम्न पुष्पिका वाक्य से प्रकट है :
'इति श्रीमद् गुणभूषणाचार्य विरचिते भव्यजनचित्त वल्लभाभिधान श्रावकाचारे साधु नेमिदेव नामांकिते सम्यक्त्वचरित्रं तृतीयोद्द ेशः समाप्तः ।'
प्रस्तुत ग्रथ तीन उद्देश्यों में समाप्त हुआ है । अन्तिम उद्देश्यों में सम्यक्त्व और चारित्र का वर्णन किया गया है । गुणभूपण के श्रावकाचार पर वसुनन्दि के उपासका चार का प्रभाव अंकित है। इतना ही नहीं किन्तु दोनों की तुलना से स्पष्ट प्रतीत होता है कि उन्होंने उसकी अनेक प्राकृतिक गाथाओं के संस्कृत रूपान्तर द्वारा अपने ग्रन्थ श्री वृद्धि की है | श्रावकचार के वर्णन में कोई वैशिष्ट्य भी नहीं है - अन्य श्रावका चारों के समान ही उसमें कथन है । जैसा कि निम्न तुलना से स्पष्ट है :
स्यादन्योन्य प्रदेशानां प्रवेशो
जीवकर्मणोः । सबन्धः प्रकृति स्थित्यनुभावा दिस्वभावक ।।१७गु ण० प्रणोष्णाण पवेसो जो जीवपएसकम्नखंधाण |
सो पप डिडिदि प्रणुभव-पएसदो चउपिहो बंधो ॥२४१ वसु० सम्यक्तव्रतः कापादी निग्रहाद्योगनिरोधतः । कर्मास्रव निरोधा यः सत्स्वरः स उच्यते ॥। १८ गुण० सम्मतेहि वरहि कोहाइ कसाय णिग्गाह गुणेहि । जोगणिरोहेण तहा कम्मासव सवरो होइ ।।४२ वसु० सविपाका विपाकाश्च निर्जरा स्याद् द्विधादिमा । संसारे सर्व जीवानां द्वितीया सु-तपस्विनाम् ॥ गुण० विपागा प्रविवागादुविहा पुण णिज्जरा मुणेयव्वा । सव्र्व्वसि जीवाणं पढमा विदिया तवस्सीणं ॥ द्यूतमध्वामिषं वेश्याखेटचार्यपराङ्गना ।
सप्तैव तानि पापानि व्यसनानि त्यजेत्सुधीः ॥११४ गुण० जयं मज्जं मसं वेसा पारद्धि-चोर-परमारं ।
दुग्गइ गमणस्सेदाणि हेउभूदाणि पावाणि ॥ ५६ वसु०
इसी तरह गुणभूपण श्रावकाचार के २०४, २०५, २०६, २०७ पद्यों के साथ वसुनन्दी श्रावकाचारकी गाथा ३३६, ३३७, ३४२, र ३४४ के साथ तुलना कीजिए। और भी अनेक गाथाओं का सस्कृति रूपान्तर किया गया है । वसुनन्दी का समय १२वी शताब्दी है इससे इतना तो सुनिश्चित है कि गुणभूषण वसुनन्दी के बहुत बाद हुए हैं। गुणभूषण ने जोमन के पुत्र नेमिदेव के लिये इसकी रचना की है जिसका ऊपर उल्लेख किया गया है । नेमिदेव वीरजिनेन्द्र के चरण कमलों का भक्त, हैय उपादेय के विचारों में निपुण, रत्नत्रय के धारक, दानदाता, आदि
१. विख्यातोऽस्ति समस्तलोक वलये श्री मूलसघोऽनघः ।
तत्राद्विनयेन्दु तदभुतमति श्री सागरेन्दोः सुतः ॥ २५६ च्छियोजन मोहभूभृदर्शनर लोश्यकीर्तिमुनिः ।
तच्छियो गुणभूषणः समभवत्स्याद्वादचूड़ामणिः || २६० गुण ०प्र० २. देखा गुणभूषण श्रावकाचार प्रशस्ति के २६१ से २६७ तक के प