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१५वी, १६वी, १७वी और १८वी शताब्दी के आचार्य, भट्टारक और कवि वाला देहलवो या दिल्ली वाला कहा जाता है, ठीक उसी तरह परवारो के सत्तममूर पद्मावतिया, की स्थिति है।
गाव के नाम पर से गोत्र कल्पना कैसे की जाती थी इसका उदाहरण प० बनारसीदासजी के अर्धकथानक से ज्ञात होता है और वह इस प्रकार है-मध्यप्रदेश के निकट 'बीहोलो'नाम का एक गाव था उममें राजवशी राजपूत रहते थे । वे गुरु प्रमाद से जैनी हो गये और उन्होंने अपना पापमय त्रिया-काण्ड छोड़ दिया। उन्होने णमोकार मन्त्र की माला पहनी, उनका कुल श्रीमाल कहलाया और गोत्र बिहोलिया रक्ग्वा गया।
याही भरत सुखेत में, मध्यदेश शभ ठांउ । वस नगर रोहतगपर, निकट बिहोती गांउ ॥८ गांउ बिहोली में बस, राजवंश रजपूत । ते गुरुमुख जैनी भए, त्यागि करम अध-भूत ॥ पहिरी माता मंत्र की पायो कल श्रीमाल । थाप्यो गोत्र बिहोलिया, बीहोली रखपाल ॥१०॥ इसी तरह से उपजातियो और उनक गोत्रादि का निर्माण हया है ।
कवि रइधु भट्टारकीय प० ये, पार तात्कालिक भट्टारको का वे अपना गुरु मानते थे। प्रोर भट्टारको के साथ उनका इधर उधर प्रवास भी हपा है। उन्होने कछ स्थानो मे कुछ समय ठहरफर कई ग्रथो की रचना भी की है, ऐमा उनकी ग्रथ प्रशस्तियो पर न जाना जाता है। वे पनिठाचार्य भी ये और उन्होंने अनेक मतियो की प्रतिष्ठा भी कराई थी। उनके द्वारा प्रतिष्ठित कई मूर्तियो के मूति नख आज भी प्रत है जिनगे यह मालम होता है कि उन्होंने उनकी प्रतिष्ठा स. १४६७ ओर १५०६ में ग्वालियर के प्रसिद्ध शामक राजा इगसिह के राज्य में कराई थी। वह मति आदिनाथ की है।' ओर स० १५२५ का लेख भी ग्वालियर के राजा कातिसिह के गज्यवाल का है।
विपर विवाहित ये या यतिवाहित, इसका कोई स्पष्ट उलोप मेरे देयने म नही पाया पार न करने अपने को वाल ब्रह्मचारी ही प्रकट किया है। इसमे तो वे विवाहित मालूम होते है पोर जान पडना है कि व गहस्थ-पटित थे ार उस समय वे प्रतिष्ठित विद्वान् गिने जाते थे। ग्रन्थ-प्रणयन में जो भटस्वरूप धन या वस्त्राभूषण प्राप्त होते थे, वही उनकी ग्राजीविका का प्रधान प्राधार था।
बलभद्र चरित्र (पद्मपुराण) की अन्तिम प्रशस्ति के १७२ कडवक के निम्न वाक्यो में मालम होता है कि उक्त कविवर के दा भाई ओर भी थे, जिनका नाम बाहोल ओर माहर्णामह था। जेमा कि उक्त ग्रन्थ की प्रशस्ति के निम्न वाक्यों से प्रकट है
मिरिपोमावडपरवालवस, णंदउ हरिसिंघ संघवी जासमंस घत्ता- बाहोल माहणसिंह चिरु णंदउ, इह रइधूकवि तीयउ वि धरा।
मोलिक्य समाणउ कलगण जाणउ णंदउ महियलि सो वि परा॥ यहा पर मै इतना और भी प्रकट कर देना चाहता हूँ कि मेघश्वर चरित (पादिपूराण) की मवत १८५१ की लिखी गई एक प्रति नजीबाबाद जिला बिजनोर के शास्त्र-भण्डार मे है जो बहुत ही अशुद्ध रूप से लिखी गई है जिसके कान पाने को प्राचार्य मिहमेन लिखा है और उन्होने अपने को सघवी हरिसिह का पुत्र भी बतलाया है। सिहपेन के आदिपुराण के उस उल्लेख पर से ही प० नाथूरामजी प्रेमी ने दशलक्षण जयमाला की प्रस्तावना मे कवि रइधू का परिचय कराते हुए फुटनोट मे श्री पडित जुगलकिशोरजी मुख्तार की रइधू को मिहमेन का बड़ा भाई मानने की कल्पना को अमगत ठहराते हुए रइधू आर सिहसेन को एक ही व्यक्ति होने की कल्पना की है । परन्तु प्रेमीजी की यह कल्पना सगत नही है ओर न रइधू सिहमेन का बड़ा भाई ही है किन्तु रइधू ओर सिहसेन दोना भिन्न-भिन्न व्यक्ति है । सिहमेन ने अपने को 'पाइरिय' प्रगट किया है जबकि रइधू ने अपने को पण्डित अोर कवि ही सचित किया है। उस आदिपुराण की प्रति का देखने और दूसरी प्रतियो के साथ मिलान करने से जान पड़ता है कि उसके कर्ता कवि रइधू ही है। सारे ग्रन्थ की वेवल आदि अन्त प्रशस्ति में ही कुछ परिवर्तन है।
शेष ग्रन्थ का कथा भाग ज्यो का त्यों है उसमें कोई अन्तर नही। ऐसी स्थिति में उक्त प्रादिपुराण के कर्ता
१. देखो, ग्वालियर जंटियर जि० १, तथा अनेकान्त वर्ष १० कि० ३, पृ. १०१ ।