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________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ उक्त कविवर के ग्रंथों में उल्लिखित 'पोमावई' शब्द स्वय पद्मावतो नाम को नगरी का वाचक है। यह नगरी पूर्व समय में खूब समृद्ध थी। उसकी इस समृद्धि का उल्लेख खजुराहो के वि० सं० १०५२ के शिलालेख में पाया जाता है। इसमे यह बतलाया गया है कि यह नगरो ऊंचे-ऊंचे गगनचुम्बी भवनों एवं मकनातां से सुशाभित थी उसके राजमार्गों में बड़े-बड़े तेज तुरंग दौड़ते थे और उसको चमकती हुई स्वच्छ एव शुभ्र दीवारें प्राकाश से बातें करती थीं सोधुत्तुंगपतङ्गलङ्घनपथप्रोत्तुंगमालाकुला, शुभ्राउंकषपाण्डुराच्चशिखरप्राकारचित्रा (म्ब) रा प्रालेयाचल शृङ्गसन्नि (नि) भशुभप्रासादसमावती भव्यापूर्वमभूदपूर्वरचना या नाम पद्मावती। त्वंगत्तुंगतुरंगमोदगमक्षु (खु) रक्षोदाद्रजः प्रो [द्ध] त, यस्यां जीन (ण) कठोर बभु (स्र) मकरो कूर्मोदराभं नमः । मत्तानेककरालकुम्भि करटप्रोत्कृष्टवृष्ट्या [द् भु] वं । तं कर्दम मुद्रिया क्षितितलं ताबू (ब) त कि संस्तुमः ॥ - Enigraphica Indica V. I. P. 149 इस समूल्लेख पर से पाठक सहज ही में पद्मावती नगरी की विशालता का अनुमान कर सकते हैं। इस नगरी को नागराजाओं की राजधानी बनने का भी सौभाग्य प्राप्त हया था और पद्मावती कांतिपूरी तथा मथुग में नौ नागराजामों के राज्य करने का उल्लेख मिलता है। पद्मावती नगरी के नागराजाओं के सिको भी मालवा में कई जगह मिले हैं। ग्यारहवीं शताब्द। में रचित 'सरस्वती कंठाभरण' में भी पद्मावती का वर्णन है। मालती-माधव में भी पद्मावती का कथन पाया जाता है जिसे लेखवृद्धि के भय से छोड़ा जाता है। परंतु खेद है कि आज यह नगरी वहां अपने उस रूप में नही है किन्तु ग्वालियर राज्य में उसके स्थान पर 'पवाया' नामक एक छोटा सा गांव बसा दया है, जो कि देहली से बम्बई जाने वाली रेलवे लाइन पर 'देवरा' नाम के स्टेशन से कुछ ही दूर पर स्थित है। यह पद्मावती नगरी ही पद्मावती जाति के निकास का स्थान है। इस दृष्टि से वर्तमान 'पवाया' ग्राम पद्मावती लिए विशेप महत्व की वस्तु है। भले ही वहां पर आज पद्मावती पूरवालों का निवास न हो, किन्तु उसके आस पास आज भी वहां पद्मावती पुरवालों का निवास पाया जाता है । ऊपर के इन सब उल्लेखों पर से ग्राम नगरादिक नामों पर से उपजातियों की कल्पना को पूष्टि मिलती है। श्रद्धेय पं० नाथूरामजी प्रेमी ने 'परवार जाति के इतिहास पर प्रकाश' नाम के अपने लेख में परवारो के साथ पद्मावती पुरवालों का सम्बन्ध जोड़ने का प्रयत्न किया था और पं० बखतराम के 'बुद्धिविलास' के अनुसार सातवां भेद भी प्रगट किया है । हो सकता है कि इस जाति का कोई सम्बन्ध परवारों के साथ भी रहा हो किन्त पद्मावती पुरवालों का निकास परवारों के सत्तममूर पद्मावतिया से हुआ हो। यह कल्पना ठीक नहीं जान पडती और न किन्हीं प्राचीन प्रमाणों से उसका समर्थन ही होता है और न सभी 'पुरवाडवंश' परवार ही कहे जा सकते हैं । क्योंकि पद्मावती पुरवालों का निकास पद्मावती नगरी के नाम पर हुआ है, परवारों के सत्तममूर नहीं। अाज भी जो लोग कलकत्ता और देहली प्रादि दूर शहरों में चले जाते हैं उन्हे कलकतिया या कलकत्ते १. नवनागा पद्मावत्यां कांतिपुर्या मयुरायां, विष्णु पु० अश ४ अ० २४ । २. देखो, राजपूतान का इतिहास प्रथम जिल्द पहला संस्करण पृ० २३० । ३. देखो, अनेकान्त वर्ष ३ किरण ७ ४. सात खांप परवार कहावे, तिनके तुमको नाम सुनावें । अठसक्खा पुनि हैं चौसक्खा, ते सक्खा पुनि हैं दोसक्खा । सोरठिया अरु गांगज जानो, पद्मावतिया सत्तम मानो॥ -बुद्धि विलास
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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