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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २
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है । महाकाव्य में नायक के चरित के प्रसंगानुसार नगर, राजा, उपवन, पर्वत, ऋतुनों, जलक्रीड़ा, सन्ध्या, प्रभात, चन्द्रोदय और रतिविलास आदि प्रकृति की विचित्रताओं और जीवन की अनुभूतियों का वर्णन समाविष्ट करना श्रावश्यक है | पंडितराज जगन्नाथ ने काव्य के प्राचीन लक्षणों का समन्वय करते हुए काव्य का लक्षण - ' रमणीयार्थ प्रतिप्रादकः शब्दः काव्यम् - रमणीय अर्थ के प्रतिपादन करने वाले शब्द समूह को काव्य - बतलाया है । इससे स्पष्ट है। कि काव्य में रमणीयता केवल अलकारों से ही नही आती, किन्तु उसके लिए सुन्दर अर्थवाले शब्दों का चयन भी जरूरी है | महाकवि हरिचन्द्र ने इस काव्य में शब्द और अथ दोनों को बड़ी सुन्दरता के साथ सजोया है । कवि ने स्वयं लिखा है कि कवि के हृदय में भले ही सुन्दर अर्थ विद्यमान रहे, परन्तु योग्य शब्दों के बिना वह रचना में चतुर नही हो सकता । जैसे कुत्ता को गहरे पानी मे भी खड़ा कर दिया जाय तो भी वह जब पानी पीयेगा तत्र जीभ से ही चाट चाट कर पीयेगा । अन्य प्रकार से उसे पीना नही आता । यथा
हृदिस्थेऽपिकवि न कश्चिन्नि ग्रन्थिगोगुम्फ विचक्षणः स्यात् । जिह्वाञ्चलस्पर्शमपास्य परंतु श्वा नान्यथाम्भो घनमध्यवैति ॥ १४
सुन्दर शब्द से रहित शब्दावली भी विद्वानों के मन को आनन्दित नहीं कर सकती। जिस प्रकार थूवरसे
भरती हुई दुग्ध की धारा नयनाभिराम होने पर भी मनुष्यों के लिये रुचिकर नही होती । हृद्यार्थवन्ध्या पर बन्धुरापि वाणीबुधानां न मनो धिनोति ॥
न रोचते लोचन वल्लभापि स्नुही, क्षरत्क्षीरसरिन्नरेभ्यः ।। १५
कवि कहता है कि शब्द और अर्थ से परिपूर्ण वाणी ही वास्तव में वाणी है, ओर वह बड़े पुण्य से किसी विरले कवि को ही प्राप्त होती है । चन्द्रमा को छोड़ कर अन्य किसी की किरण अन्धकार की विनाशक और अमृत भराने वाली नही है । सूर्य की किरणें केवल अन्धकार की नाशक है, किन्तु भीषण आताप को भी कारण है । यद्यपि मणि किरणे प्रतापजनक नही है, किन्तु उनमें सर्वत्र व्याप्त अन्धकार को दूर करने की क्षमता नही है । यह उभय क्षमता विधिचन्द्र किरण में ही उपलब्ध होती है ।
वाणी भवेत्कस्यचिदेव पुण्यः शब्दार्थ सन्दर्भ विशेषगर्भा ।
इन्दु विना न्यस्य न दृश्यते युत्तमोधुनाना च सुधाधुनीव ॥१६
महाकवि हरिचन्द्र के इस महाकाव्य में वे समस्त लक्षण पाये जाते है जिन गुणों की शास्त्रकार काव्य में स्थिति आवश्यक बतलाते हैं । इस चरित ग्रन्थ में महनीयता के साथ चमत्कारों का वर्णन पूर्णतया समाविष्ट हुआ है । मंगल स्तवन के पश्चात् सज्जन- दुर्जन वर्णन, जम्बूद्वीप, सुमेरु पर्वत, भारतवर्ष, आर्यावर्त, रत्नपुरनगर, राजा, मुनि वर्णन, उपदेश, श्रवण, दाम्पत्यसुख, पुत्र प्राप्ति, बाल्य जीवन, युवराज अवस्था, विन्ध्याचल, षट्ऋतु, पुष्पावचय, जलक्रीड़ा, सन्ध्या, अन्धकार, चन्द्रोदय, नायिका प्रसाधन, पानगोष्ठी, रतिक्रीड़ा, प्रभात, स्वयंवर, विवाह, युद्ध, और वैराग्य आदि का विविध उपमानों द्वारा सरम और सालकार कथन दिया है ।
कवि ने धर्मनाथ तीर्थकर के चरित्र को साहित्यिक दृष्टि से गौरवशाली बनाया है । कवि ने धर्मनाथ का जीवन-परिचय गुणभद्राचार्य के उत्तर पुराण से लिया है । कवि ने स्वयं लिखा है कि जो रसरूप और ध्वनि के मार्ग का मुख्य सार्थवाह था, ऐसे महाकवि ने विद्वानों के लिये अमृतरसके प्रवाह के समान यह धर्मशर्माभ्युदय नामका महा काव्य बनाया है:
सकर्ण पीयूषरसप्रवाहं रसध्वनेरध्वनि सार्थवाहः । श्री धर्मशर्माभ्युदयाविधानं महाकविः काव्यमिदं व्यधत्त ॥
- प्रशस्ति पद्य ७
धर्मशर्माभ्युदय में
२१ सर्ग और १८६५ श्लोक है जिनमें कवि ने १५वे तीर्थकर धर्मनाथ का पावन चरित काव्य दृष्टि से अंकित किया है। काव्य में लिखा है कि धर्मनाथ महासेन और सुव्रता रानी के पुत्र थे । उनका
१. तिलोय पण्णत्ती मे धर्मनाथतीर्थंकर को भानु नरेन्द्र और सुव्रतारानी का पुत्र बतलाया है। रयणपुरे धम्मजिरणो भाग्गरगरिदेण सुव्वदारण ||