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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ सुन्दर है। क्योंकि जयकुमार और सुलोचना का चरित स्वयं ही पावन रहा है । १५ वीं शताब्दी के कवि रइधू ने अपने मेघेश्वर चरित में-"मेहेसरहु चरिउ सुर सेणे - वाक्य द्वारा उसका उल्लेख किया है।
मुनि देवचन्द्र ये मलसंघ देशीय गच्छ के विद्वान मूनि वासवचन्द्र के शिष्य थे जो रत्नत्रा के भपण, गुणों के निधान तथा प्रज्ञान रूपी अंधकार के विनाशक भानु (सूर्य) थे। प्रशस्ति में उन्होंने अपनी गुरु परम्परा निम्न प्रकार दी है श्री कीति, देवकीति, मौनिदेव, माधवचन्द्र, अभयनदी, वासवचन्द्र प्रोर देवचन्द्र । इस गुरु परम्परा के अतिरिक्त ग्रन्थकर्ता ने रचना समय का कोई उल्लेख नहीं किया, हा रचना का स्थल गुदिज्ज नगर का पार्श्वनाथ मन्दिर बतलाया हैं जो कहीं दक्षिण में अवस्थित होगा। वासवचन्द्र नाम के दो विद्वानो का उल्लेख मिलता है। प्रथम वासवचन्द्र का उल्लेख सं० १०११ वैशाख सुदि ७ सोमवार के दिन उत्कीर्ण किये गए खजुराहो के जिननाथ मंन्दिर के लेख में हुआ है जो राजा धंग के राज्य काल में उत्कीर्ण हुआ था।
दूसरे वासवचन्द्र का उल्लेख श्रवणवेल्गोल के ५५ व शिलालेख में पाया जाता है जो शक स० १०१२ (वि० सं० ११४७ ) का खोदा हुआ है । उसके २५ वे पद्य में वामवचन्द्र मुनि का नामोल्लेख है, जिनकी बुद्धि कर्कश तर्क करने में चलती थी, और जिन्हें चालुक्य राजा की राजधानी में बाल सरस्वति की उपाधि प्राप्त थी। यदि ये देवचन्द्र वासवचन्द्र के गुरु हों तो इनका समय विक्रम की १२वी शताब्दी हो सकता है। ग्रन्थ प्रशस्ति में वासवचन्द्र सूरि को अभयनन्दी का दीक्षित शिष्य बतलाया है और लिखा है कि उन्होंने चारों कषायों को विनष्ट किया था, जो भव्यजनो को आनन्ददायक थे, और जिन्होंने जिन मन्दिरों का उसार किया था, जैसा कि निम्न वाक्य से प्रगट है-'उद्धरियइ जे जिणमदिराइ।' उन्ही के शिप्य देवचन्द्र थे। ग्रन्थ के भापा साहित्यादि पर से वह १२वी १३वीं शताब्दी से पूर्व की रचना नहीं जान पड़ती। चरित्र भी सामान्यतया वहा हे । उसमें कोई खास वैशिष्ट्य के दर्शन होते।
प्रस्तुत ग्रन्थ में ११ संन्धियाँ और २०२ कडवक हैं। जिनमें भगवान पार्श्वनाथ वा चरित्र-चित्रण किया गया है। कवि ने दोधक छन्द में पार्श्वनाथ की निश्चल ध्यानमुद्रा को अकित है, उससे पाठक ग्रन्थ की शैली से परिचित हो सकेंगे।
तत्थ सिलायले थक्कु जिणिदो, संतु महंतु तिलोय हो वंदो, पंचमहर्वय-उद्दय कधो, निम्ममु चत्त चउध्विह बंधो। जीव दया वरु संग विमुक्को, णं दह लक्खणु धम्मु गुरुक्को । जन्म-जरामरणुझिय दप्पो वारसभेयतवस्स महप्पो। मोह-तमंध-पयाव-पयंगो, खंतिलयासहणे गिरितु गो। संजम-सील-विहूसिय देहो, कम्म-कसाय हुप्रासण महो। पुप्फ धरण वर तोमर धंसो मोक्ख-महासरि कीलण हंसो। इन्दिय-सप्पहविसहर यंतो, अप्पसरूव -समाहि-सरंतो केवलनाण-पयासण-कंखू , धाण पुरम्मि निवेसिय चक्खू । णिज्जिय सासु पलंवियवाहो, णिच्चल देह विसिज्जय-वाहो।
कंचण सेलु जहां थिरचित्तो,दोधक छंद इमो बुह वुत्तो ॥" इसमें बतलाया गया है कि भगवान पार्श्वनाथ एक शिला पर ध्यानस्थ बैठे हुए हैं। वे सन्त महन्त १. गुंदिज्ज नयरि जिणपासहम्मि, निवसंतु संतु संजरिणय-मम्मि ।
-जैनग्रन्थ प्रश० भा०२ पृ० २४ २. See Epigraphica Indca Vol T Page136 ३. वासवचन्द्रमुनीन्द्रोरुन्द्रस्याद्वादतर्क कर्कश-धिषणः ।
चालुक्यकटकमध्ये बालसरस्वतिरिति प्रसिद्धिःप्राप्तः ।। जनशिला ले० सं०भा० १ लेख २५ ।