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तेरहवीं और बौदहवीं शताब्दी के आचार्य, विद्वान और कवि
त्रिलोकवति जीवों के द्वारा बन्दनीय हैं, पंच महाव्रतों के धारक हैं, निर्मम हैं,और प्रकृति प्रदेश स्थिति अनुभागरूप चार प्रकार के बन्ध से रहित है दयालु और संग (परिप्रह) से मुक्त हैं, दशलक्षण धर्म के धारक हैं। जन्म, जरा पोर मरण के दर्द से रहित हैं । तप के द्वादश भेदों के अनुप्ठाता हैं। मोहरुपी अंधकार को दूर करने के लिये सूर्य समान हैं। क्षमारूपी लता के प्रारोहणार्थ वे गिरि के समान उन्नत हैं। जिनका शरीर संयम और शील से विभूषित है। जो कर्मरूप कषाय हुताशन के लिये मेघ हैं। कामदेव के उत्कृष्ट बाणों को नष्ट करने वाले तथा मोक्षरूप महा सरोवर में क्रीड़ा करने वाले हंस हैं । इन्द्रियरूपी विपधर सर्पो को रोकने के लिये मंत्र हैं। प्रात्म-समाधि में चलने वाले हैं। केवलज्ञान को प्रकाशित करने वाले सूर्य हैं, नासाग्र दृष्टि हैं । श्वास को जीतने वाले हैं, जिनके बाहु लम्बायमान हैं और व्याधियों से रहित जिनका निश्चल शरीर है। जो सुमेरु पर्वत के समान स्थिर चित्त हैं।"
यह सब कथन पार्श्वनाथ की उस ध्यान-समाधि का परिचायक है जो कर्मावरण की नाशक है।
ग्रन्थ की यह प्रति सं० १४६८ के दुर्मति नाम संवत्सर के पूस महीने के कृष्ण पक्ष में अलाउद्दीन के राज्य काल में भट्टारक नरेन्द्रकीति के पटाधिकारी भटारक प्रतापकीमिके समय देवगिरि के महादुर्ग में अग्रवाल श्रावक पण्डित गांगदेव के पुत्र पासराज द्वाग लिखाई गई है।
जयसेन (प्रामृतत्रयके टीकाकार)यह मूलसंघ के विद्वान आचार्य वीरसेन के प्रशिष्य और सोमसेन के शिष्य थे। जयसेन मालूसाहू के पौत्र और महीपतिसाध के पुत्र थे। उनका बाल्यकाल का नाम चारुभट था, वे जिन चरणों के भक्त और प्राचार्यों के सेवक थे। जैसा कि उनकी प्रशस्ति के निम्न पद्यों से प्रकट है :
सूरिः । श्री वीरसेनाख्यो मूलसंघेपि सत्तपाः । नैर्थ पदवीं भेजे जातरूप धरोपि यः॥ ततः श्री सोमसेनोऽभद गणी गुणगणाश्रयः । तद्विनेयोऽस्ति यस्तस्य जयसेन तिपोभृते ॥ शीघ्र बभूव मालू (१) साधुः सदा धर्मरतो वदान्यः । सूनुस्ततः साधु महीपतियस्तस्मादयं चारुभटस्तनूजः ॥ यः संततं सर्वविदः सपर्या मार्ग क्रमराधनया करोति ।
स श्रेयसे प्राभृत नाम ग्रन्थ पुष्यत् पितुभक्ति विलोपभीरु।।। चारुभट जब दिगम्बर मूनि हो गये तब उनके तपस्वी जीवन का नाम जयसेन हो गया। उन्होंने कुन्दकुन्दाचार्य के प्राभूत ग्रन्थों का अध्ययन किया और समयसार पंचास्तिकाय और प्रवचनसार तीनों ग्रन्थों पर वृत्ति संस्कृत भाषा में बनाई, जिसका नाम तात्पर्य वृत्ति है। वृत्ति की भाषा सरल और सुगम है। इनमें पंचास्तिकाय की वृत्ति पर ब्रह्मदेव की द्रव्यसंग्रह को टीका का प्रभाव परिलक्षित है। उन्होंने सोमश्रेष्ठी के लिए द्रव्यसंग्रह के रचे जाने के निमित्त का भी 'अन्यत्र' द्रव्यसंग्रहादौ सोमश्रेष्ठयादि ज्ञातव्यं' निम्न शब्दों में उल्लेख किया है। जयसेन ने अपनी वृत्ति में रचना समय नहीं दिया, फिर भी अन्य साधनों से उनका समय डा० ए० एन० उपाध्याय ने ईसा की १२ वीं शताब्दी का उत्तरार्ध और विक्रम की १३वीं शताब्दी का पूर्वार्ध निश्चित किया है, क्योंकि इन्होंने प्राचार्य वीरनन्दी के आचार सार से दो पद्य उद्धत किये हैं। प्राचार्य वीरनन्दी ने आचारसार की स्वोपज्ञकनड़ी टीका शक सं० १०७६ (वि० सं० १२११) में समाप्त की थी। वीरनन्दी के गुरु मेघचन्द्र विद्यदेव का स्वर्गवास विक्रम की १२ वीं सदी
१. See Introduction of the Pravacansara P. 104 २. देखो, तात्पर्यवृत्ति पु०पौर आचार सार ४१६५-६६ श्लोक ३. स्वस्ति श्रीमन्मेषचन्दत्रविद्यदेवर श्री पादप्रसादासादितात्मप्रभाव समस्त-विद्या-प्रभाव सकल दिग्वति श्री कीर्ति
श्रीमदवीरनन्दिसैद्धान्तिकचक्रवतिगलु शकवर्ष १०७६ श्रीमुखनाम संवत्सरे ज्येष्ठ शुक्ल १ सोमवार दंता माडिया चार सारक्के कर्णाट वृत्ति माडिद पर"