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________________ ग्यारहवीं और बारहवी शताब्दी के विद्वान, आचार्य २५३ करने वाले, भरतमन्त्री द्वारा सम्मानित, अपने काव्य प्रबन्ध से लोगो को पुलकित करने वाले, धो डाला है पापरूप कीचड़ जिसने ऐसे अभिमान मेरु पुष्पदन्त ने जिनभक्ति पूर्वक क्राधन नवन्मर मे महापुराण की रचना की‍ पुष्पदन्त के पिता का नाम केशवभट्ट और माता का नाम मुग्धादेवी था । यह काश्यप गोत्री ब्राह्मण थे । इनका शरीर अत्यन्त कृश ( दुबला-पतला ) और वर्ण सांवला था। यह पहले शेव मतानुयायी थे । किन्तु बाद में किसी दिगंबर विद्वान् के सानिध्य से जैनधर्म का पालन करने लगे थे । वे जैनधर्म के बड़े श्रद्धालु ओर अपनी काव्य कला से भव्यों के चित्त को अनुरजित करने वाले थे । जैनधर्म के सिद्धान्तों और ब्राह्मण धर्म के सिद्धान्तों के विशिष्ट विद्वान थे । प्राकृत, संस्कृत और अपभ्रंश भाषा के महापण्डित थे। इनका अपभ्रंश भाषा पर असाधारण अधिकार था। उनकी कृतियां उनके विशिष्ट विद्वान् होने की स्पष्ट सूचना करती है। कविवर बड़े स्वाभिमानी और उग्र प्रकृति के धारक थे। इस कारण वे अभिमान मेरु, कहलाते थे। अभिमान मेरु अभिमान चिन्ह' काव्य रत्नाकर" कवि-कुल- तिलक और मरस्वती निलय तथा कवि पिशाच' आदि उनकी उपाधिया थी। जिनका उपयोग उन्होंने अपने ग्रन्थों में स्वय किया है। इससे उनके व्यक्तित्व और प्रतिष्ठा का सहज ही अनुमान किया जा सकता है। सरस्वती के विलासी और स्वाभाविक काव्य-कला के प्रेमी थे। इनकी काव्य-शक्ति अपूर्व श्रौर आश्चर्यजनक थी । वे निम्संग थे, उनकी निस्संगता का परिचय महामात्य भरत के प्रति कहे गए निम्न वाक्यों से स्पष्ट हो जाता है । वे मन्त्री भरत से कहते है कि मैं धन को तिनके के समान गिनता हूं । मै उमे नही लेता । मैं तो केवल अकारण प्रेम का भूखा हूं। और इसी से तुम्हारे महल में हूं। मेरी कविता तो जिनचरणों की भक्ति से ही स्कुरायमान होती है, जीविका निर्वाह के ख्याल से नहीं । 1 1 पुष्पदन्त बड़े भारी साम्राज्य के महामात्य भरत द्वारा सम्मानित थे । भरत राष्ट्रकूट राजाओं के अन्तिम सम्राट् कृष्ण तृतीय के महामात्य थे । कवि ने उन्हें 'महयत्त वंसधय वह गही लिखा है। भरत मानवता के हामी, विद्वानों के प्रेमी और कवि के प्राश्रय दाता थे । वे उनके पुनीत व्यवहार मे उनके महलों में निवास करते थे । यह सब उनकी धर्म वत्सलता का प्रभाव है जो उक्त कवि से महापुराण जैमा महान् ग्रन्थ निर्माण कराने में समर्थ हो सके । भरत मन्त्री के दिवंगत हो जाने के बाद भी कवि उनके सुपुत्र नन्न के महल में भी रहे और नागकुमार चरित यशोधर चरित की रचना की। उत्तर पुराण के संक्षिप्त परिचय पर मे ज्ञात होता है कि वे बड़े निस्पृह और अलिप्त थे, और देह-भोगों से सदा उदासीन रहते थे । कवि के उच्चतम जीवन णो से उनकी निर्मल भद्र प्रकृति, निस्सगता और अलिप्तता का वह चित्रपट हृदय पटल पर अकित हुए बिना नहीं रहता। उनकी इस किचन वृत्ति का महा मान्य भरत पर भी प्रभाव पड़ा है। देहभोगी की प्रलिप्तना उनके जीवन की महत्ता का सबसे बड़ा सबूत है । यद्यपि वे साधु नही थे, किन्तु उनकी निरीह भावना इस वानकी सद्योतक है कि उनका जीवन एक माधु से कम भी नही था वे स्पष्टवादी थे और अह्कार की भीषणता मे सदा दूर रहते थे, परन्तु स्वाभिमान का परित्याग करना उन्हें किसी तरह भी इष्ट नही था। इतना ही नहीं किन्तु वे अपमान से मृत्यु को अधिक श्रेष्ठ समझते थे । कवि का समय १. देखो, उत्तर पुराण प्रशस्ति २. कसरण मरीरं मुकुरुवे मुद्धावि गभ मभूवे ।' उत्तर पु० प्रशस्ति ३. (क) न सुरगेवि भणइ अहिमागमेर ।' महापु० म० १-३-१२ (ग्व) हो मदिरि णिवसतु सतु, अहिमाण मे गुग्गुगण महतु ॥ - नाग कु० च० १, २, २ ४. वय संजुत्ति उत्त मसत्ति वियलिय मकि अहिगारक || जसहरच० ५-३१ ५. भो भो केसव तरह गावसर रुह मुह बब्ब रयण रयणायक । ६. त मुवि भरहे वृत्त ताव, यो ककुलतिलय विमुक्तगाव ७. जिरण चरण कमल भत्तिल्लएरण, ता जपिट कव्व सरल एरण । ८. धण तरणममु मज्दन, रण तं गहण, गोहु पिकारिमु उच्छमि । देवि सुअ सुदरिगहि तेण हउ लिए तुहार ए अच्च्छमि ॥ २०, उत्तरपु० C. मज्भुकइतणु जिरण पय भत्तिहे, पमरइ उ गिय जीविय वित्तिहे— उत्तरपु० महा पु० १-८-१ महापू० १,८,८
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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