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________________ २५६ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ युद्धों का बोझ ढोते-ढोते उनके कन्धे घिस गये थे, उन्होंने अनेक युद्ध किये थे ।' वे कृष्णराज के सेनापति और दान मत्री भी थे। वे कवियों के लिये कामधेनू, दीन-दुखियों की प्राशा पूरी करने वाले, चारों ओर प्रसिद्ध, परस्त्री पराङ्मुख, सच्चरित्र उन्नतमति और मुजनो के उद्धारक थे । उनका रंग सावला था, उनकी भुजाए हाथी की सूड के समान थीं, अङ्ग सुडील नेत्र सुन्दर और वे सदा प्रसन्न मुख रहते थे । भरत बहुत ही उदार अोर दानी थे । भरत ने पुष्पदन्त से महापुराणकी रचना कराकर अपनी कोति को चिरस्थायी बनाया। णाय कुमार चरिउ (नाग कुमार चरित)-यह एक छोटा मा खण्ड काव्य है। इसमें हसन्धियाँ हैं। जिनमे पचमी व्रत के उपवास का फल बतलाने वाला नाग कुमार का चरित अकित किया गया है, रचना सुन्दर-प्रोढ़ और हृदय-द्रावक है और उसे कवि ने चित्रित कर कण्ठ का भूपण बना दिया है। ग्रन्थ में तात्कालिक सामाजिक परिस्थिति का भी वर्णन है। ग्रन्थ की रचना भरत मन्त्री के पुत्र नन्न की प्रेरणा से हुई है। नन्न को यशोधर चरित में 'वल्लभ नरेन्द्र ग्रह महत्तर-वल्लभ नरेन्द्र का गृह मन्त्री लिखा है। नन्न अपने पिता के सुयोग्य उत्तराधिकारी थे ओर वे कवि का अपने पिता के समान पादर करते थे। वे प्रकृति से सौम्य थे, उनकी कीति सारे लोक मे फैली हुई थी। उन्होने जिन मन्दिर बनवाए थे। वे जिन चरणों के भ्रमर थे, और जिनपूजा में निरत रहते थे, जिन शामन के उद्धारक थे, मुनियों को दान देते थे, पापरहित थे, बाहरी और भीतरी शत्रयों को जीतने वाले थे, दयावान् दीनों के शरण राजलक्ष्मी के क्रीड़ा सरोवर, सरस्वती के निवास, पोर तमाम विद्वानों के साथ विद्या-विनोद में निरत एव शुद्ध हृदय थे।" ....... गीमसकला विण्णाणकुसलु । पायपकट कव्वरमावउद्ध-मपीय मगसइ मुरहि दुद्ध ।। कमलच्छु अमच्छरु सच्चमधु, रगगभर धुर धरणग्घट्ठवध । २ सोय श्री भरतः कलक रहितः कान्त. सवृत्तः शुचिः । सज्ज्योतिर्मणिराकरो प्लुतइवानयॊ गुरगर्भासते। वशो येन पवित्रतामिह महामात्याह्वयः प्राप्तवान् । श्रीमद्वल्लभराज शक्तिकटके यश्चाभवन्नायकः ॥ प्र० श्लो० ४६ ह हो भद्र प्रचण्डानि पति भवने त्याग सख्यान कर्ता, कोय श्यामः प्रधानः प्रवरकरिकगकारबाहुः प्रसन्नः । धन्यः प्रालय पिण्डोपमधवलयशो धौनधात्रीतलान्तः । ख्यातो बन्धुः कवीनां भरत इति कथं पान्य जानामि नो त्वम् ।। प्र० श्लो०१५ ३. सविलाम विलासिणि हियहथेरण मुपसिद्ध महाकइ कामधेण । काणीणदीगपरिपूरियासु जसपसरपमाहिय दसदिसासु । पर रमणि परम्मुहु सुद्धसीलु उण्णयमइ-मुयणुद्धरणलीलु ॥ ४. श्यामरुचि नयन मुभगं लावण्य प्रायमंगमादाय । भरतच्छलेन सम्प्रति कामः कामाकृतिमुपेतः ॥ प्र० श्लो० २० ५. मुहतुगभवणवावार भार रिणव्यहम्ण वीरधवलस्स । कोडिल्लगोत्तणहससहरस्स पयईए सोमस्स ॥१ कुद व्यागब्भ समुन्भवम्म सिरि भरत भट्टतणयस्स । जम पसर भरिय भुवणोयरम्स जिणचरण कमल भसलस्य ॥२ अणवरय रइय वरजिणहरम्म जिणभवणपूय रिणरयस्स । जिण मासणायमुद्धारणम्स मुरिणदिपणदारणस्स ॥३ नागकु० प्र०
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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