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________________ ज्योंही, तेरहवीं और चौदहवीं शताब्दी के आचार्य, विद्वान और कवि ३९७ इन्द्र वजा और शार्दूल विक्रीडित आदि छन्दों में निबद्ध है जैसा कि उसके निम्न पद्यसे स्पष्ट है : या देव-धर्म-गुरुपादपयोज-भक्ता, सर्वज्ञदेव सुखदायि-मतानु-रक्ता। संसारकारिकूकथा कथनेविरक्ता, सा रूप्पिणी बुधजनन कथं प्रशस्या ।। -सधि २-२ यह काव्य-ग्रन्थ सीधी-सादी एवं सरल भाषा में निबद्ध है किन्तु भाषा चलती हुई प्रसाद गुण युक्त है। इसमें विक्रम की तेरहवीं शताब्दी के जन सामान्य में प्रचलित भाषाके शब्द यत्र-तत्र मिलते हैं -त्योंही, सपत्तउ (सपाटे से) विल्ल (वेल), कखंद (करोंदा) झन्ति झटसे) । भाषा में मुहावरे, लोकोक्तियों एवं सूक्तियों का प्रयोग हुआ है । बोलचाल की भाषा के प्रयोग भो देखने में आते हैं । सूक्तियां भी जन सामान्य में प्रचलित पाई जाती हैं यथा-- विणु उज्जमेण गउ किंपि होइ-विना उद्यम के कोई काम नही बनता। जहि सच्चइ तहि फिरि-फिरि रमई---जहाँ अच्छा लगता है वहा मनुष्य बार-बार जाता है। ग्रन्थ का चरितभाग धनपाल की विसयत्त कथा से समानता रखता है। परन्तु धनपाल की भविसयत्त कथा की भाषा प्रौढ है। परन्तु धनपाल की कथा के समान भाषा का प्रांजल रूप, अलकरणता, कल्पनात्मक वैभव, और सौन्दर्यानुभति की झलक श्रीधर की भविष्यदत्त कथा में नही पाई जाती। फिर भी ग्रन्थ महत्वपूर्ण है। कविने इस ग्रन्थ की रचना वि० सं० १२३० (सन् ११७३ ई०) के फाल्गुनमास के कृष्णपक्ष की दशवीं रविवार के दिन समाप्त की है । माधवचन्द्र विद्य (क्षपणासारगद्य के कर्ता) प्रस्तुत माधवचन्द्र मलसंघ क्राणूरगण तिन्त्रिणी गच्छ के विद्वान मुनि चन्द्रमूरि के प्रशिष्य और सकलचन्द्र के शिष्य थे। जो तर्क सिद्धान्तादि तीन विषयों में निपुण होने के कारण त्रविद्य कहलाते थे। जैन शिलालेख संग्रह तृतीय भाग के लेख नं० ४३१ में, जो शक सं० १११६ (वि० सं० १२५४ का उत्कीर्ण किया हया है, उसमें मुनिचन्द्र प्रक्षालन करके महाप्रधान दण्डनायक ने कुछ चावलों की भूमि, दो कोल्हू और एक दुकान का 'एदग' जिनालय को दान दिया है। इन्हीं सकलचन्द्र के शिष्य उक्त माधवचन्द्र हैं, जिनकी उपाधि विद्य थी। इन्होंने क्षल्लकपूर (वर्तमान कोल्हापुर) में क्षपणासार गद्यकी रचना की है। क्षपणासार गद्य में कर्मो के क्षपण करने की प्रक्रिया का सुन्दर वर्णन किया गया है। माधवचन्द्र ने इस ग्रन्थ की रचना शिलाहार कुल के राजा वीर भोजदेव के प्रधान मंत्री बाहुबलो के लिये की थी। और जिन्हें माधव चन्द्रने भोजराज के समुद्धरण में समर्थ, बाहुबल युक्त, दानादिगुणोत्कृष्ट, महामात्य और लक्ष्मीवल्लभ बतलाया है। उन्हीं के लिये शकसं० ११२५ (सन् १२०३) वि० सं० १२६० में क्षपणासारगद्य का निर्माण किया था, जैसा कि उसके निम्न पद्य से स्पष्ट है : प्रमूना माधवचन्द्रदिव्यगणिना वद्यिचक्र शिना. क्षपणासारमकारि बाहुबलिसन्मंत्रीशसंज्ञप्तये । १. गरणाहविक्कमाइच्चकाले पवहंतए सुयारए विसाले। बारहमय-वरिसहि परिगएहि फागुणमासम्मि बलक्वपक्खे । दसमिहि दिणे तिमिरुक्कर विवक्खे, रविवार समारिणउ एउ सत्थ ।। -जैन ग्रन्थ प्रशस्ति संग्रह भा० २ पृ०५० । २. "पंचांगमंत्रबहस्पतिसमानबुद्धियुत-भोजराजप्राज्य साम्राज्यसमुद्धरणसमर्थ-बाहुबल युक्त-दानादि गुणोत्कष्ट महामात्य-पदवी-लक्ष्मीवल्लभ-बाहुबलिमहाप्रधानेन वा।" -क्षपणासार गद्य प्रशस्ति जैन ग्रन्थ प्र० सं० भा० ११.१६५
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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