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ग्यारहवीं और बारहवी शताब्दी के विद्वान, आचार्प
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धीश्वर राजा भोज द्वारा पूजित थे और न्याय रूप कमल समूह को विकसित करने वाले दिनमणि, और शब्द रूप अब्ज को प्रफुल्लित करने वाले रोदोमणि (भास्कर) सदृश थे। और पण्डित रूपी कमलों को विकसित करने वाले सर्य तथा रुद्रवादि दिग्गज विद्वानों को वश करने के लिय अकुश के समान थे तथा चतर्मुख देव के शिष्य थे।
दोनों ही शिलालेखों में उल्लिखित प्रभाचन्द्र एक ही विद्वान जान पड़ते है। हां, द्वितीय लेख (५५) में चतम खदेव का नाम नया जरूर है, पर यह सभव प्रतीत होता है कि प्रभाचन्द्र के दक्षिण देश से धारा में आने के पश्चात् देशीयगण के विद्वान चतुर्मुखदेव भी उनके गुरु रहे हो तो कोई आश्चर्य नही ; क्योंकि गुरु भी तो कई प्रकार के होते हैं--दीक्षा गुरु विद्या गुरु आदि । एक-एक विद्वान के कई-कई गुरु पार कई-कई शिष्य होते थे। अतएव चतुर्मुखदेव भी प्रभाचन्द्र के किसी विषय में गुरु रहे हों, और इसलिये व उन्हे समादर की दृष्टि से देखते हों, तो कोई आपत्ति की बात नही, अपने से बड़ों को आज भी पूज्य और आदरणीय माना जाता है।
अब रही समय की बात, सो ऊपर यह बतलाया जा चुका है कि प्रभाचन्द्र ने प्रमेय कमलमार्तण्ड को राजा भोज के राज्य काल मे रचा है। जिसका राज्य काल सवत १०७० मे १११० तक का बतलाया जाता है । उसके राज्य काल के दो दान पत्र संवत् १०७६ ओर १०७६ क मिल है।
आचार्य प्रभाचन्द्र ने देवनदी की तत्त्वार्थ वति के विपम-पदों का एक विवरणात्मक टिप्पण लिखा है। उसके प्रारम्भ में अमितगति के सस्कृत पंचसग्रह का निम्न पद्य उद्धत किया है
वर्गः शक्ति समूहोऽणोरणूनां वर्गणोदिता।
वर्गणानां समूहस्तु स्पर्धकं स्पर्धकापहैः ॥ अमितगति ने अपना यह पच मंग्रह मसूतिकापुर में, जो वर्तमान में 'मसीद विलौदा' ग्राम के नाम से प्रसिद्ध है, वि० सं १०७३ में बनाकर समाप्त किया है। अमितगति धाराधिप मज की सभा रत्न भी थे। इससे स्पष्ट है कि प्रभाचन्द्र ने अपना उक्त टिप्पण वि० संवत् १०७३ के बाद बनाया है। कितने दिन बाद बनाया है। यह बात अभी विचारणीय है।
न्याय विनिश्चय विवरण के कर्ता प्राचार्य वादिराज ने अपना पार्श्वनाथ चरित शक सं० १४७ (वि० सं० १०८२) में बनाकर समाप्त किया है। यदि राजा भोज के प्रारम्भिक राज्यकाल में प्रभाचन्द्र ने प्रमेय कमलमार्तण्ड बनाया होता, तो वादिराज उसका उल्लेख अवश्य ही करते । पर नही किया, इससे यह ज्ञात होता है कि उस समय तक प्रमेय कमलमार्तण्ड की रचना नही हुई थी। हॉ, सुदर्शन चरित के कर्ता मुनि नयनन्दी ने, जो माणिक्य नन्दी के प्रथम विद्याशिष्य थे और प्रभाचन्द्र के समकालीन गुरुभाई भी थे, अपना नचरित' वि० स० ११०० में बनाकर समाप्त किया था। उसके बाद 'सकल विधि विधान' नाम का काव्यग्रन्थ बनाया, जिसमें पूर्ववर्ती और समकालीन अनेक विद्वानों का उल्लेख करते हुए प्रभाचन्द्र का नामोल्लेख किया है परन्तु उसमें उनकी रचनामों का कोई उल्लेख नही है। इससे स्पष्ट है कि प्रमेय कमल मार्तण्ड को रचना सं०११०० के बाद किसी समय हई है और न्याय कूमूदचन्द्र स० १११२ के बाद की रचना है, क्योकि जयसिह राजा भोज (म० १११०) के बाद किसी समय उत्तराधिकारी हआ है। न्याय कुमुदचन्द्र जयसिह के राज्य में रचा गया है। इससे प्रभाचन्द्र का समय विक्रम की ११ वीं शताब्दो का उत्तरार्ध और १२ वा शताब्दी का पूर्वाध हाना चाहिये।
१ श्री वाराधिप-भोजराजमुकुट-प्रोतास्म-रश्मिच्छटा
च्छाया कूकूम-पक-लिप्त चरणाम्भो जात लक्ष्मीधवः न्यायाब्जाकरमण्डने दिनमगिश्शब्दाब्ज-रोदोमणि: स्थयात्पण्डित-पुण्डरीक-तरणि श्रीमान् प्रभाचन्द्रमा ॥१७॥ श्रीचतुर्मुखदेवाना शिष्योऽधृप्य: प्रवादिभिः । पण्डित श्रीप्रभाचन्द्रो रुद्रवादि-गंजाकुशः ।।१८।।
-जैन शिलालेख मंग्रह भा० ११० ११८ । २ त्रिसप्त्यधिकेऽब्दानां सहस्र शकविद्वष. । मसूतिका पुरे जात मिद शास्त्रं मनोरमम् । पचसंह-६