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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
तप रूप चार पाराधनाओं का कथन किया गया है । आराधना के कथन के साथ अनेक दृष्टान्तों द्वारा उस विषय को स्त्रप्ट करने का प्रयत्न किया गया है । मरण के भेद-प्रभेदों का अच्छा वर्णन किया है और समाधि मरण करनेवाले क्षपक की परिचर्या में लगनेवाले साधुओं की संख्या ४४ बतलाई गई है। १६२१ नम्बर की गाथा से १८६१ नं० को २७० गाथाओं द्वारा आर्त, रौद्र, धर्म और शुक्ल इन चार ध्यानों का विस्तृत वर्णन किया गया है । ग्रन्थ में कुछ ऐसी प्राचीन गाथाएं मिलती हैं, जिनका उल्लेख श्वेताम्बरीय आवश्यक नियुक्ति आदि ग्रन्थों में पाया जाता है। परन्तु यह अवश्य विचारणीय है कि आवश्यक नियुक्ति प्रादि ग्रन्थ छठवीं शताब्दी में लिखे गए हैं । आवश्यक नियुक्ति को मुनिपुण्यविजयजी छठवी शताब्दी का मानते हैं। परन्तु भगवती आराधना उसके कई शताब्दी पूर्व की रचना है। जाति दस ग्रन्थ में स्त्री मक्ति और कवलाहार आदि की मान्यता का उल्लेख नहीं है, तो भी दशस्थिति कल्पवाली गाथा के कारण प्रेमीजी ने पाराधना के कर्ता को यापनीय सम्प्रदाय का बतलाया है। लगता है, कल्पवाली गाथाएं दोनों सम्प्रदायों में पूर्व परम्परा से आई हैं । वे श्वेताम्बरीय ग्रन्थों से ली गई यह कल्पना समुचित नहीं है। यह ग्रन्थ बड़ा लोकप्रिय रहा है । इस पर अनेक टीका-टिप्पण लिखे गये हैं। इस ग्रन्थ पर विजयोदया और मूलाराधना टीका के अतिरिक्त एक प्राकृत टीका और छोटे-छोटे टिप्पण भी रहे हैं, जिनसे उसकी महत्ता का स्पष्ट भान होता है। अपराजित सूरि या श्रीविजय द्वारा रचित संस्कृत टीका प्रकाशित हो चुकी है। जिसमें गाथाओं के अर्थ का स्पष्टीकरण करते हुए अन्य अनेक उपयोगी वस्तुओं पर विचार किया गया है । आचार्य शिवकोटि ने इस ग्रंथ की रचना पूर्वाचार्यों के सूत्रानुसार की है । श्रीचन्द्र और जयनन्दी ने भी इस पर टिप्पण लिखे हैं। आराधना पञ्जिका और भावार्थ-दीपिका टीका, पं० शिवाजी लाल की भी उपलब्ध है, जो संवत १८१८ की जेठ सुदी १३ गुरुवार को समाप्त हुई है । संस्कृत पाराधना प्राचार्य अमितगति द्वितीय ने लिखी है, जो संस्कृत के पद्यों में अनुवाद रूप में है।
ग्रन्थ के अन्त में बालपण्डित मरण का कथन करते हुए, देशव्रती श्रावक के व्रतों का भी कुछ विधान २०७६ से २०८३ तक की ५ गाथाओं में पाया जाता है।
समन्तभद्र का शिष्यत्व श्रवण बेलगोल के शिलालेख नं० १०५ में जो शक सं० १०५० (वि० सं० ११८५) का लिखा हुआ है, शिवकोटि को समन्तभद्र का शिष्य और तत्त्वार्थ सूत्र की टीका का कर्ता घोपित किया है । यथा--
तस्यैव शिष्यः शिवकोटिसूरिस्तपोलतालम्बनदेहयष्टिः ।
संसारवाराकरपोतमेतत्तत्वार्थसत्रं तदलंचकार ॥ प्रभाचन्द्र के पाराधना कथाकोश और देवचन्द्र कृत 'राजावलीकथे' में शिवकोटि को समन्तभद्र का शिप्य कहा गया है। विक्रान्त कौरव नाटक के कर्ता आचार्य हस्तिमल्ल ने भी, जो विक्रम की १४वीं शताब्दी में हुए हैं अपने निम्न श्लोक में समन्तभद्र के दो शिष्यों का उल्लेख किया है । एक शिवकोटि, दूसरे शिवायन :
शिष्यौ तदीयौ शिवकोटिनामा शिवायनः शास्त्रविदां वरेण्यो।
कृत्स्नश्रुतं श्रीगुरुपादमूले ह्यधीतवन्तौ भवतः कृतार्थी । उक्त आराधना ग्रंथ के कर्ता ने समन्तभद्र का कोई उल्लेख नहीं किया। चूकि समन्तभद्र का दीक्षा नाम अज्ञात है, इस कारण इस सम्बन्ध में कुछ अधिक नहीं कहा जा सकता । समन्तभद्र शिवकोटि के गुरु हैं इस विषय का कोई स्पष्ट प्रमाण मिल जाय तो यह समस्या हल हो सकती है। ग्रंथकार द्वारा उल्लिखित गुरुनों के नामों में जिननन्दि का नाम पाया है। यदि जिननन्दि समन्तभद्र का दीक्षा नाम हो तो उस हालत में शिवकोटि समन्तभद्र के शिष्य हो सकते हैं। पर इसमें सन्देह नहीं कि शिवकोटि समन्तभद्र के शिष्य जरूर थे और वे सम्भवतः काञ्ची के राजा थे-बनारस के नहीं । वे यही हैं या अन्य कोई, यह विचारणीय और अन्वेषणीय है।