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________________ पांचवीं शताब्दी से आठवी शताब्दी तक के आचार्य १४५ अकलंक ने तालाब में छिपकर अपने प्राणों की रक्षा की। निकलंक आगे भागे। वहीं एक धोबी ने निकलंक को भागते देखा । वह भी पीछे प्राते हुए घुड़सवारों को देख किसी अज्ञात भय की आशंका से निकलक के साथ ही भागने लगा। घुड़सवारों ने आकर दोनों को तलवार के घाट उतार कर अपनी रक्त पिपासा शान्त की । “अकलंक वहां से चल कर कलिंग देश के रत्न संचयपुर में पहुंचे। वहाँ के राजा हिमशीतल की रानी मदन सुन्दरी ने अष्टान्हिका पर्व के दिनों में जैन रथ यात्रा निकलवाने का विचार किया। किन्तु बौद्धगुरु संघ श्री के बहकाने में ग्राकर राजा ने रथ यात्रा निकालने की यह शर्त रखी कि यदि कोई जैनगुरु बौद्ध गुरु को शास्त्रार्थ में हरादे तब ही जैन रथ यात्रा निकल सकती है। इससे रानी बड़ी चिन्तित हुई और धर्म में विशेष रूप से संलग्न हुई । कलंक देव वहां आये और राजा हिमशीतल की सभा में बौद्ध विद्वान से शास्त्रार्थ हुआ । संघश्री बीच में परदा डालकर उसके पीछे बैठकर शास्त्रार्थ करता था। शास्त्रार्थ करते हुए छह महीने बीत गये, पर किसी की हारजीत नहीं हो पाई। एक दिन रात्रि के समय चक्रेश्वरी देवी ने अकलंक को इसका रहस्य बताया वि परदे के पीछे घट में स्थापित तारादेवी शास्त्रार्थ करती है । तुम उसमे प्रातःकाल कहे गये वाक्यों को दुबारा पूछना, इतने से ही उसकी पराजय हो जायेगी। अगले दिन अकलंक ने चक्रेश्वरी देवी की सम्मति के अनुसार प्रातः कहे गये वाक्यों को फिर दुहराने को कहा तो उत्तर नहीं मिला। उन्होंने तुरन्त परदा खींच कर घड़े को पैर की ठोकर में फोड़ डाला ।' इससे जैनधर्म की विजय हुई और रानी के द्वारा संकल्पित रथयात्रा धूमधाम से निकाली गयी ।" उस समय जैन धर्म की महती प्रभावना हुई । जनता के हृदय में जैनधर्म के प्रति आस्था बढ़ी और रानी का दृढ़ संकल्प पूरा हुआ । कथा कोश में राजा शुभतुरंग की राजधानी मान्यवेट और अकलंक देव को उसके मन्त्री पुरुषोत्तम का पुत्र बतलाया है तथा राजा हिमशीतल की सभा में बौद्धों को शास्त्रार्थ में पराजित करने का भी उल्लेख किया है। राष्ट्रकूट राजा कृष्णराज प्रथम की उपाधि शुभतुरंग' थी। उसका समर्थन शिलालेखों में उत्कीर्ण प्रशस्तियों से भी होता है । शुभ गदन्तिदुर्ग के चाचा थे। युवावस्था में दन्तिदुर्ग की मृत्यु हो जाने के वाद वे राज्याधिरूढ़ हुए 'थे 1 दन्तिदुर्ग का ही नाम साहसतुरंग था । इसने कांची, केरल, चोल ओर पाण्ड्य देश के राजाओं को तथा राजा हर्ष और वज्रट को जीतने वाली कर्णाटक की सेना को हराया था । कर्णाटक की सेना का अर्थ चालुक्यों की सेना से है। क्योंकि चालुक्य राज पुलकेशी द्वितीय ने देष वंशी राजा हर्प को जीता था । " किया है। 'भारत के प्राचीन राजवंश ग्रन्थ में दन्तिदुर्ग की उपाधियों में 'माहसतुरंग' उपाधि का भी उल्लेख डा० ए० वी० सातार ने रामेश्वर मन्दिर के स्तम्भ लेख से सिद्ध किया है कि साहसतुरंग दन्तिदुर्ग का १. मलिषेण प्रशस्त के निम्न पद्य में भी राजा हि शीतल की सभा में शास्त्रार्थ के समय घडे फोड़ने की बात का समर्थन होता है : - मल्लिपेण प्रशस्तिका का समय शक स० १०५० (सन् १९२८) है । "नाहङ्कारवशीकृतेन मनमा न द्वेषिणा केवलं, नैरात्म्यं प्रतिपद्य नश्यति जने कारुण्य बुद्धया मया । राज्ञः श्री हिमशीतलस्य सदसि प्रायो विदग्धात्मनी, tatara कलान्विजित्य सुगत : (मघट :) पादेन विस्फोटितः || २३ || ." श्रीकृष्ण राजस्य शुभतुङ्ग तुरंग तुरग प्रवृद्ध रेण्वर्धरुद्ध रविकिरणम्" - ए० इ० ३ पृ० १०६ २ ३. कांचीश केरलनराधिपचोलपाण्डेय श्री हर्षवाट विभेव विधानदक्षम् 1 कर्णाटकं बलमनन्त मजेयरथ्यं भृत्यः कियदभरपि यः सहसा जिगाय || - शामन गढ ( कोल्हापुर) का शक सं० ६७५ का दानपत्र, इ० ए० भा० ११ पृष्ठ १११ ४. देखो एहोल का शिलालेख । ५. भाग 3 पृ० २६ ।
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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