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१५वों १६वों १७वीं पोर १५वी शताब्दी के माचार्य, भट्रारक और कवि
अभिनव वारुकीति पंडितदेव चारु कीर्ति पडि देव-यह नन्दिसघ देशोय गण पुस्तक गच्छ इग नेश्वर बलिशाखा के भट्टारक श्रुतकोति के शिष्य थे । इनका जन्म नाम कुछ और ही रहा होगा। चाहकोनि नाम दोश्रवणबेलगोल के पट पर बैठने कारण प्रसिद्ध हया है। इनका जन्मस्थान द्रविण देशान्तर्गत मिहपुर था'। यह चारूकीर्ति पडिनाचार्य के नाम से ख्यात थे और श्रवण बेलगोल के चारकीति भट्टारक के पद पर प्रतिष्ठिन थे । यह विद्वान और तपस्थी थे । वादी तथा चिकित्सा शास्त्र में निपुण थे। तप में निष्ठुर, चित्त में उपशान्न, गुणो म गुरुना अोर शरीर में कृशता थी एक बार राजा बल्लान युद्ध क्षेत्र के समीप मरणासन्न हो गए। भट्टारक चारकीति ने उन्हें तत्काल नीरोग कर दिया था।
इन्होंने गंगवश के राजकुमार देवराज के अनुरोध मे 'गीत वीतराग' का प्रणयन किया था। इसमें ऋषभदेव का चरित वणित है। जयदेव (मन ११८०) के 'गीत गोविन्द'के डग पर इमको रचना हुई है। इसका अपर नाम अप्टपदी है।
इस ग्रन्य का पि का वाक्य इस प्रकार है :
"इति श्री मद्रायगज गरु भूमण्डलाचार्यवर्य महावाद वादीश्वराय वादि पितामह सकलविद्वज्जन चक्रवर्ती बल्लाल राय जोव रक्षापाल (१) कृत्याद्यनेक विपदावलिविराजच्छीमद्वेलगोल सिद्ध सिंहासनाधीश्वर श्रीमदभिनवचारुकोति पाण्डताचार्य वर्य प्रणीत गीत वीतरागाभिधानाष्ट पदी समाप्ता।"
इनको दुसरा कृति 'प्रमेयरत्नमालालकार है जो परीक्षामुखमूत्र की व्याम्या प्रमेयरत्न माला की व्याख्या है। उसी के विषय का विशद विवेचन किया है। ग्रन्थ दार्गनिक है पर छह परिच्छेदो में विभक्त है । ग्रन्थ अभी अप्रकाशित है इसका समाप्ति पुप्पिका बाक्य इस प्रकार है :
इति श्रीमद्दे शिगणाग्रगणण्यस्य श्रीमडल मुलपुर निबास रसिकस्य चारुकोति पण्डिता चार्यस्य कृतौ परीक्षा मुख सूत्र व्याख्यायां प्रमेय रत्नमाला लङ्कार समाख्यायां षष्ठः परिच्छेदः समाप्तः ॥
समय-भट्टारक श्रुतकीर्ति का स्वर्गवास शक स. १३५५ (सन् १४३३) में हुया है। अतएव अभिनव चारुकीति का समय शक सं० १३५० (सन् १४२८) है। यह विक्रम की १५वी शताब्दी के विद्वान हैं।
लक्ष्मीचन्द्र इनका कोई परिचय प्राप्त नही है । लक्ष्मीचन्द्र की दो कृतिया उपलब्ध है । एक सावय धम्म दोहा (श्रावक धर्म दोहा) दूसरी कृति 'अनुप्रेक्षा दोहा' है।
श्रावक धर्म दोहा-में श्रावक धर्म का वर्णन २२४ दोहों में किया गया है। दोहा सरस अोर सरल है। किन्त कवि कुशल, अनुभवा, व्यवहार चतुर और नोतिज्ञ जान पड़ता है। कथन शला पादशात्मक है । ग्रन्थ की भाषा अपभ्रश हाते हए भी लोक भाषा के अत्यधिक निकट है। दाहों में दृष्टान्त वाक्य जुड़े होने के कारण ग्रन्थ प्रिय और सग्राह्य हो गया है। वादीसह की क्षत्र चूड़ामणि सुभापित नीतियों के कारण बहुत ही प्रिय और उपादेय बना हुमा है। डा० ए० एन० उपाध्याय के अनुसार ब्रह्मश्रुतसागर ने नौ दोहे इस ग्रन्थ के उक्तं च रूप से दिये है । इससे इतना तो स्पष्ट है कि प्रस्तुत दोहों की रचना विक्रम की सोलहवी शताब्दी के मध्य काल से पूर्व हुई है ग्रन्थ में अप्ट प्रकारी पूजा का फल दिया है और निम्न मभक्ष वस्तुओं के खाने से सम्यग्दर्शन का भंग होना बतलाया है।
सूलउ-णाली-भिसु-ल्हसुणु-तुवड-करडु-कलिगु । सूरण-फुल्ल-ऽस्थाणयहं भक्खणि सण-भंगु ।
- -- -- -- -- - १. द्रविड देश विशिष्टे सिहपुरे लब्धशस्त जन्मासी। -गीत वीतराग प्रश० २. जैन लेखसंग्रह भा० १ पृ० २१३ लेख नं० १०८ । ३. देखो, गीत वीतराग प्रशस्ति ।