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जन धर्म का प्राचीन इतिहास -भाग २ प्राचार्य धरसेन
पसियउ महु धरसेणो पर-वाइ-गमोह-दाण-वरसीहो।
सिद्धनामिय-सायर-तरंग-संधाय-धोय-मणो।। मुनि पंगव धरसेन सौराष्ट्र (गुजरात काठियावाड़) देश के गिरिनगर की चन्द्रगुफा के निवासी, अष्टांग महानिमित्त के पारगामी विद्वान थे। उन्हे अग और पूर्वो का एकदेश ज्ञान प्राचार्य परम्परा से प्राप्त हुआ था।' प्राचार्य धरसेन अग्रायणी पूर्व स्थित पचम वस्तु गत चतुर्थ महाकर्म प्रकृति प्राभृत के ज्ञाता थे। उन्होंने प्रवचन वात्सल्य से प्रेरित हो अग-श्रुत के विच्छेद हो जाने के भय से किसी ब्रह्मचारी के हाथ एक लेख दक्षिणापथ के प्राचार्यों के पास भेजा। लेख में लिखे गए धरसेनाचार्य के वचनो को भली भा। समझ कर उन्होंने ग्रहणधारण में समर्थ, देश-कुल जाति से शुद्ध अोर निर्मल विनय से विभूषित, समस्त कलाओं में पारगत दो साधुओं को प्रान्घ्र देश में बहने वाली वेणा नदी के तट से भेजा।
मार्ग में उन दोनों साधनों के पाते समय, जो कुन्द के पुष्प, चन्द्रमा और गस के समान सफेद वर्ण वाले हैं, समस्त लक्षणों से परिपूर्ण है, जिन्होंने प्राचार्य धरसेन की तीन प्रदक्षिणा दी है, और जिनके अग नम्रीभूत होकर प्राचार्य के चरणों में पड़ गए है ऐसे दो बैलों को धरमेन भट्टारक ने रात्रि के पिछ ने भाग में स्वप्न में देखा। इस प्रकार के स्वप्न को देख कर सन्तुष्ट हा धरमेनाचार्य ने 'थत देवता जयवन्त हो' ऐसा वाक्य उच्चारण किया।
उमी दिन दक्षिणा पथ से भजे हा दोनो साध धरसेनाचार्य को प्राप्त हए। धरसेनाचार्य की पाद वन्दना आदि कृति कर्म करके तथा दो दिन बिता कर तीसरे दिन उन दोनों साधनों ने धरसेनाचार्य से निवेदन किया कि इस कार्य मे हम दोनो आपके पादमूल को प्राप्त हा है। उन दोनों साधनो के इस प्रकार निवेदन करने पर 'अच्छा है, कल्याण हो, इस प्रकार कह कर धरमेनाचार्य ने उन दोनों साधुओं को आश्वासन दिया।
धरमेनाचार्य ने उनकी परीक्षा ली, एक को अधिकाक्षरी और दूसरे को होनाक्षरी विद्या बता कर उन्हें षष्ठोपवास मे सिद्ध करने को कहा। जब विद्या सिद्ध हई तो एक बड़े दांतों वाली और दूसरी कानी देवी के रूप में प्रकट हई। उन्हें देख कर चतर साधकों ने मन्त्रों की टि को जानकर अक्षरों की कमी-वेशी को दूर कर साधना की तो फिर देवियाँ अपने स्वाभाविक रूप में प्रकट हुई।
उक्त दोनों मुनियों ने धरसेन के समक्ष विद्या-सिद्धि सम्बन्धी सव वृत्तान्त निवेदन किया, तब धरमेनाचार्य ने कहा - बहुत अच्छा। इस प्रकार सन्तुष्ट हुए धरमेन भट्टारक ने गुभ तिथि, शुभ नक्षत्र और शुभ वार में ग्रन्थ का
भ किया। धरमेन का अध्यापन कार्य प्रापाढ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी के पूर्वाह काल में समाप्त हुआ । अतएव सन्तुष्ट हुए भूत जाति के व्यन्तर देवों ने उन दोनों में एक की पुप्पावली से तथा शख और तूर्य जाति
१ नदो मोम वागगर्दशो प्रादपिपग्मगा पागच्छमागो धग्मंगाग्यि सपत्तो।
-धवला० पु० ११० ६७ । २. मोरट्ठ-विमा-गिग्गियर-पट्टगा चदहा-ठिाण अट्टग-महानिमिन-पारा गा गथ-वोच्होदो हो हदिनि जात-भारण
पवयण-वच्छलेग दक्विगावहारियाग महिमा मिलिगाण लेहो पमिदो। लेहाव्य-धरमेग-वयगगमवधाग्यि ते हि वि आदगि हि वे मा गहगग-धारण-ममत्या धवलामलबहविह-विगग-बिहमियगा मीलमालाहग गुर पेर गासणतित्ता देम-कुल-जाद-मुद्धा मयलकला-पाग्य निक्वत्ता बुच्छ्यिाग्यिा अध विमय-वेगगायदादो पेमिदा।
(धवला० पु. १ पृ०६७) उज्जिते गिरि मिहरे धग्मेणो धरः वय-ममिदिगुनी । चदगुहाट रिगवासी वियह नमु गमहु पय जुयल ।। ८१ अग्गायगीय गणाम पचम वत्युगद कम्मपाहदया। पर्यादिदिश्रण भागो जाणनि पदेसबधो वि ।। ८२
(श्रत वध ब्रह्महेमचन्द्र) इन्द्र नन्दिश्रुतावतार श्लोक १०३, १०४
(ख)