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कुन्दकुन्दाचार्य
है। जिस तरह वैद्य विष खाकर भी नहीं मरता, उसी तरह ज्ञानी भी पूदगल कर्मों के उदय को भोगता है। किन्तु कर्मों से नहीं बंधता क्योंकि वह जानता है कि यह राग पुदगल कर्म का है। मेरे अनुभव में जो रागरूप प्रास्वाद होता है वह उसके विपाक का परिणाम एव पल है। वह मेग निजभाव नही है। मैं तो गुद्ध ज्ञायक भाव रूप है। अतएव सम्यग्दृष्टि जीव ज्ञायक स्वभाव रूप आत्मा को जानता हुमा कर्म के उदय को कर्म के उदय का विपाक जानकर उसका परित्याग कर देता है।
७वे बन्धाधिकार में बन्ध का कथन करते हा बतलाया है कि आत्मा और पौद्गलिक कर्म दोनों ही स्वतन्त्र द्रव्य हैं। दोनों में चेतन अचेतन की अपेक्षा पूर्व और पश्चिम जैसा अन्तर है। फिर भी इनका अनादिकाल से मयोग बन रहा है। जिस तरह चुम्बक में लोहा ग्वीचने और लोहे में खिचने की योग्यता है । उसी प्रकार प्रात्मा में कर्मरूप पूदगलों को खीचन की प्रार कर्मरूप पुद्गल में खिचने को योग्यता है। अपनी-अपनी योग्यतानुसार दोनों का एक क्षेत्रावगाह हो रहा है। इसी एक क्षेत्रावगाह को बन्ध कहते है । प्राचार्य महोदय ने एक दृष्टान्त द्वारा बन्ध का कारण स्पष्ट किया है। जैसे कोई मल्ल शरीर में तेल लगा कर धल भरी भूमि में खड़ा होकर शस्त्रों से व्यायाम करता है। केले आदि के पेड़ो को काटता है तो उसका शरीर धलि मे लिप्त हो जाता है। यहां उसके शरीर में जो तेल लगा हैसचिक्कणता है उसी के कारण उसका शरीर धूल से लिप्त हना है। इसी प्रकार अज्ञानी जीव इद्रिय विषयों में रागादि करता हया को म वधता है, स। उसके उपयोग में जा रागभाव है वह कर्मबन्ध का कारण है। परन्तु जो ज्ञानी ज्ञानस्वरूप में मग्न रहता है, वह कमी से नहीं बधता ।
आठवे मोक्षाधिकार में बतलाया है कि जैसे कोई पूरुप चिरकाल से बन्धन में पड़ा हुप्रा है और वह इस बात को जानता है कि मै इतने समय से बधा हुआ पड़ा हूँ। किन्तु उस बन्धन को काटने का प्रयत्न नहीं करता, तो वह कभी बन्धन से मुक्त नहीं हो सकता । उसी तरह कर्म बन्धन के स्वरूप को जानने मात्र मे कर्म से छुटकाग नहीं होता। परन्तु जो पुम्प गगादि को दूर कर शुद्ध होता है वही मोक्ष प्राप्त करता है। जो कर्मबन्धन के स्वभाव पौर प्रात्म स्वभाव को जानकर बन्ध में विरक्त होता है वही कर्मो से मुक्त होता है। प्रान्मा प्रोर बन्ध के स्वभाव को भिन्न भिन्न जानकर बन्ध को छोड़ना और आत्मा को ग्रहण करना ही मोक्ष का उपाय है । यहाँ यह प्रश्न होता है कि प्रात्मा को कैसे ग्रहण करे, इसका उत्तर देते हए प्राचार्य ने कहा है कि प्रज्ञा (भेद विज्ञान) द्वारा जो चैतन्यात्मा है वही मै हूं । गेप अन्य सब भाव मुझमे पर है-वे मेरे नहीं है । इत्यादि कथन किया गया है।
___ सर्व विशुद्धि अधिकार मे एक तरह से उन्ही पूर्वोक्त बातों का कथन किया गया है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्र का विषय शुद्ध आत्म तत्त्व है । वह शुद्ध आत्मतत्त्व सर्वविशुद्धज्ञान का स्वरूप है। न वह किसी का कार्य है, और न किसी का कारण है, उसका पर द्रव्य के साथ कोई सम्बन्ध नही है। इमो विचार मात्मा और परद्रव्य में कर्ता कर्मभाव भी नही है। अतएव प्रात्मा पर द्रव्य का भोक्ता भी नही है। अज्ञानी जीव प्रज्ञानवश ही प्रात्मा को परद्रव्य का कर्ता भोक्ता मानता है।
इस ग्रन्थ पर प्राचार्य अमृतचन्द्र की आत्मख्याति, जयसेन की तात्पर्यवृत्ति और वालचन्द्र अध्यात्मी की टीकाए उपलब्ध हैं।
नियमसार-प्रस्तुत ग्रन्थ में १८७ गाथाएं हैं। जिन्हे टीकाकार मलधारि पद्मप्रभदेव ने १२ अधिकारों में विभक्त किया है। किन्तु यह विभाग ग्रन्थ के अनुरूप नही है । ग्रन्थकार ने इसमें उन सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्र रूप श्रद्धान को सम्यग्दर्शन बतलाया है और प्राप्त आगम का स्वरूप बतलाकर तत्त्वों का कथन किया है, पश्चात् छह द्रव्यों और पंचास्तिकाय का कथन है। व्यवहारनय से पाच महाव्रत, पांच समिति, और तीन गप्ति यह व्यवहार चारित्र है। आगे निश्चयनय के दृष्टिकोण से प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, आलोचना, कायोत्सर्ग, सामायिक और परम भक्ति इन छह आवश्यकों का वर्णन किया है और बतलाया है कि निश्चयनय से सर्वज्ञ केवल प्रात्मा को जानता है, और व्यवहारनय से सबको जानता है। इसी प्रसग में दर्शन और ज्ञान की महत्वपूर्ण चर्चा दी है। रचना महत्वपूर्ण और उपयोगी है।