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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ कवि ने लिखा है कि यह मेरी प्रथम रचना है जैसाकि 'आत्म प्रबोधमधुना प्रथमं करोमि' वाक्यों से स्पष्ट है।
- श्री कुमार नामके दो विद्वानों का उल्लेख मिलता है । एक श्रीकुमार वे हैं जिनका उल्लेख नयनन्दि (११००)ने सकल विधि विधान काव्य के निम्न वाक्यों में किया है-"श्रीकूमार सरसइ कूमरु, कित्ति विलासिणि सेहरु।" और जिन्हें सरस्वती कुमार भी कहते थे । दूसरे श्री कुमार कवि वे हैं, जो कवि हस्ति मल्ल (१४ वीं सदी) के चार ज्येष्ठ भ्राताओं में से एक थे। इनमें नयनन्दि के समकालीन श्री कुमार प्रात्मप्रबोधके कर्ता जान पड़ते हैं।
इस ग्रंथकी दो हस्तलिखित प्रतियां १६ वीं शताब्दी की उपलब्ध हैं। सं०१५७२ की लिखी हई एक प्रति १४ पत्रात्मक जन मन्दिर लश्कर जयपुरक भडार में और दूसरा कामा में दोवान जी के मन्दिर के भडार में सं० १५४७ की लिखी हुई उपलब्ध है। प्रन्थ परिचय
प्रस्तुत ग्रंथमें संस्कृत के १४६ श्लोक हैं। ग्रंथ का विषय उसके नाम से स्पष्ट है। कवि ने आत्मा का स्वरूप बतलाते हुए कहा है कि संसार के प्रायः सभी जीव आत्मविमुख हैं, आत्मज्ञ पुरुष तो विरले होते हैं। जिन्हें
का बांध नहीं है उन्हें दूसरों को प्रात्मबोध कराने का अधिकार नहीं है, जिनम तरकर नदी को पार करने की क्षमता नहीं है, वह दूसरों को तरने का उपदेश कैसे दे सकता है ? उसका उपदेश तो वंचक ही समझा जावेगा।
प्रात्मप्रबोध विरहादविशुद्धबुद्धेरन्यप्रबोधनविधि प्रतिकोऽधिकारः ।
सामर्थ्यमस्ति तरितं सरितो न यस्य, तस्य प्रतारणपरा परतारणोक्तिः॥४ यदि दूसरों को प्रतिबोधन करने की इच्छा है, तो पहले स्वयं अपनी आत्मा को प्रबुद्ध कर। क्योंकि चाक्षष मनुष्य ही अन्धे को सुरक्षित मार्ग में ले जा सकता है, अन्धे को अन्धा नहीं। कवि यह भी कहता है कि जिनका मानस मिथ्यात्व से मढ है, जो मोह निद्रा में सदा सुप्त हैं, उनके लिये भी मेरा यह श्रम नहीं है; किन्त जिनकी मोह निद्रा शीघ्र नष्ट होने वाली है वही प्रात्मप्रबोध के अधिकारी हैं। उन्हीं के लिये यह ग्रन्थ रचा जाता है । यथा
मिथ्यात्व मूढ मनसः सततं सुषप्ता, ये जंतवो जगति तान्प्रति न श्र मो नः ।
येषां यियासु रचिरादिव मोहनिद्रा, ते योग्यतां दधति निश्चितमात्मबोधे ॥६ जिसके रहते हए शरीर पदार्थों के ग्रहण करने दान देने, आने-जाने सुनने-सुनाने, स्मरण करने दुःखादि के अनुभव करने में प्रवृत्त होता है, वही प्रात्मा है, आत्मा चेतन है, ज्ञाता दृष्टा है, और स्पर्शनादि इन्द्रियों के अगोचर है क्योंकि वह अतीन्द्रिय है अतएव उनसे प्रात्मा का ज्ञान नहीं होता। प्रात्मा नित्य है, अविनाशी गुणों का पिण्ड है, परिणमनशील है विद्वान लोगों द्वारा जाना मोर अनुभव किया जाता है, ज्ञान दर्शन स्वरूप उपयोगमय है, शरीर प्रमाण है, स्वपर का ज्ञाता है, कर्ता है, कम फल का भोक्ता मोर अनंत सुखों का भंडार है । उस आत्मा को सिद्ध करने वाले तीन प्रमाण हैं। प्रत्यक्ष पागम और मनुमान । प्रात्मा इन्द्रिय प्रत्यक्ष का विषय नहीं है। क्योंकि वह प्रतीन्द्रिय है हां सकल प्रत्यक्ष द्वारा प्रात्मा जाना जा सकता है। या प्राप्त वचन रूप प्रागम से, और अनुमान से जाना जाता है। शरीर में जब तक पात्मा रहती है शरीर उस समय तक काम करता है हेयोपादेय कार्यों में प्रवृत्त होता है, सुख दुःखादि की अनुभूति करता है, किन्तु जब शरीर से प्रात्मा निकल जाता है तब वह निश्चेष्ट पड़ा रह जाता है। अत: यह अनुमान शान भी उसके जानने में साधक है। भगवान जिनेन्द्र ने आत्मा को ज्ञाता दृष्टा बतलाया है। प्रात्मा के चैतन्य स्वरूप को छोड़कर अन्य चेतन प्रचेतन पदार्थ प्रात्मा के नहीं है वे सब प्रात्मा मे भिन्न हैं।
१ देखो, राजस्थान जैन ग्रथ भंडार सूची भाग ५ पृ० १८३ २ नित्यो निरत्ययगुणः परिणामधाम, बुद्धो बुध गवबोधमयोपयोगः। ___ आत्मा वपुः प्रमितिरात्म परप्रमाता कर्ता स्वतोऽनुभविताऽय मनंतसौख्यः ॥६ ३ त्रेधा प्रमाण मिह साधकमस्ति यस्मात् प्रत्यक्ष माप्तवचनं च तथानमानं ॥१३