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ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य
समय
ग्रन्थ में रचनाकाल दिया हुआ नहीं है । श्रतः यह निश्चय करने में कठिनाई होती है कि यह ग्रन्थ कब श्रीर कहाँ रचा गया। पुरातात्त्विक, व लेखादि सामग्री भी उपलब्ध नहीं है । अतः ग्रन्थ के अन्तः परीक्षण द्वारा इस समस्या सुलझाने का यत्न किया जाता है । द्रव्य स्वभाव प्रकाशक नयचक्र में अनेक ग्रन्थकारों के पद्यों को उक्त च वाक्य के साथ उद्धृत किया गया है । और विक्रम की तेरहवीं शताब्दी के विद्वान प० आशाधर जी द्वारा इष्टोपदेश टीका का निर्माण सं० १२८५ से पूर्व हो गया था, क्योंकि सं० १२८५ में रचे जाने वाले जिन यज्ञकल्प को प्रशस्ति में इष्टोपदेश टीका का उल्लेख है । इष्टोपदेश के २२वें पद्य की टीका के अन्तर्गत द्रव्य स्वभाव प्रकाश नयचक्र की ३४९ वीं गाथा उद्धत है
:
गहियं तं सुप्रणाणा पच्छा संवेयणेण भाविज्जा । जो गहु सुय मवलंवइ सो मुज्झइ अप्पसम्भावे || ३४६ ॥
३४१
चूकि आशाधर १३ वी शताब्दी के विद्वान हैं । अतः द्रव्य स्वभावप्रकाश की रचना सं० १२८५ से पूर्व हुई
है । वह उसके बाद की रचना नहीं है ।
एकत्व सप्तति श्रादि प्रकरणों के कर्त्ता मुनि पद्मनन्दि है । उनकी एकत्व सप्तति के पद्य अनेक विद्वानों ने उद्धृत किये हैं । एकत्व सप्तति के दो पद्यों को पद्मप्रभ मलधारी देव ने नियममार की टीका में (गाथा ५१ - ५५ में) तथा चोक्तमेकत्वसप्ततौ नामोल्लेख के साथ एकत्व सप्तति का ७६ वा पद्य, और १००वी गाथा की टीका में (३६–४१) पद्यों को उद्धृत किया है। पद्मप्रभ मलधारी देव का स्वर्गवास वि स० १२४२ मे हुआ था । अतः पद्मनन्दि की एकत्व सप्तति म०१२४२ से पूर्व बनकर प्रचार में ग्रा चुकी थी ।
इस एकत्व सप्तति की एक कनड़ी टीका है जिसके कर्ता पद्मनन्दिव्रती है जिनकी ३ उपाधिया पाई जाती हैं। पंडित देव, व्रती और मुनि । यह शुभचन्द्र राद्धान्त देव के अग्र शिष्य थे और उनके विद्या गुरु थे कनकनन्दि पण्डित । पद्मनन्द मुनि ने अमृतचन्द्र की वचन चन्द्रिका से प्राध्यात्मिक विकास प्राप्त किया था और निम्बराज नृपति के सम्बोधनार्थ एकत्व सप्तति की कनड़ी वृत्ति रची थी ।"
प्रस्तुत निम्बराज शिलाहार वंशीय गण्डरादित्य नरेश के सामन्त थे । उन्होंने कोल्हापुर में अपने अधिपति के नाम से 'रूपनारायण वसदि, नामक जैन मन्दिर का निर्माण कराया था । तथा कार्तिक वदि ५ शक सं० १०५८ ( वि० सं० १९९३) कोल्हापुर में मिरज के आस-पास के ग्रामों का आपने दान दिया था ।
एकत्वसप्तति के कर्त्ता पद्यनन्दि और कनड़ी वृत्ति के कर्त्ता पद्मनन्दि व्रती दोनों भिन्न भिन्न विद्वान है । पद्मनन्दि पचविशतिका के कर्त्ता पद्मनन्दि विक्रम की १२वीं के पूर्वार्ध के विद्वान जान पड़ते है । अतः द्रव्यस्वभाव प्रकाश नयचक्र के कर्त्ता माइल्ल धवल १२ वी शताब्दी के मध्यकाल के विद्वान होना चाहिये ।
कुमुदचन्द्र
कुमुदचन्द्र नाम के अनेक विद्वान आचार्य हो गए हैं । उनमें कल्याण मन्दिर स्तोत्र के रचयिता भिन्न
कवि हैं ।
१. श्रीपद्मनन्दिवृति निर्मिते यम् एकत्वसप्तत्य खिलार्थ पूर्तिः ॥ वृत्तिश्चिर निम्बनृप प्रबोधलब्धात्मवृत्ति र्जयतां जगत्याम् । स्वस्ति श्रीशु रचन्द्रराद्धान्तदेवाय शिष्येण कनकनन्दिपण्डितवाग्रस्मिविकसितहृत्कुमुदानन्द श्रीमद् अमृतचन्द्र चन्द्रिकोन्मीलितनेत्रोत्पलावलोकिताशेषाध्यात्मतत्ववेदिना पद्मनन्दिमुनिना श्रीमज्जै नसुधाब्धिवर्धनकरा पूर्णेन्दुराराति वीर श्रीपतिनिम्बराजावबोधनाय कृतैकत्वसप्ततेषु तिरियम् - तज्ज्ञाः संप्रवदन्ति सततमिह श्रीपद्मनन्दि व्रती कामध्वंसक इत्यलं तदमृत तेषां वचस्सर्वथा अंग्रेजी प्रस्तावना पद्मनन्दि पंचविंशति पृ० १७
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