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तेरहवीं शोर चौदहवीं शताब्दी के आचार्य, विद्वान और कवि
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कनकचंद्र श्री मूलसंघ क्राणूरगण मेष पाषाण गच्छद कनकचन्द्र सिद्धान्तदेवर-(सिद्धान्तदेव को) अरटाल के मन्दिर की पूजा के वास्ते दान दिया गया है । इस मन्दिर में भगवान पार्श्वनाथ की बड़ी कायोत्सर्ग मूर्ति विराजमान है । उसके नीचे कनड़ी अक्षरों में एक शिलालेख है। इस मन्दिर को वेट्टकेर निवासी बचिमेट्टि ने बनवाया था। [सत्याश्रय कुलतिलक चालुक्यराजम भुवनकमल्ल विजय राज्ये शाका १०४५ (वि० सं० ११७०) अर्थात् यह विक्रम की १२ वीं शताब्दी के तृतीत चरण के विद्वान हैं। ] देखो, दि० जैन डायरेक्टरी पृ० २४१)
विजयकोति प्रस्तुत विजयकीति शांतिषण गुरु के शिष्य थे। जो लाड बागड गण की आम्नाय के विद्वान देवसेन की शिष्य परम्परा के थे। ये शान्तिपेण दुर्लभसेन सरि के शिष्य थे, जिन्होने राजा भोजदेव की सभा में पंडित शिरोमणि अंवरसेन आदि के समक्ष सैकड़ों वादियों को हराया था। निर्मल बुद्धि और शुद्ध रत्नत्रय के धारक थे । इन्होंने दूबकुण्ड (चडोभ) ग्वालियर के मन्दिर की प्रशस्ति लिखी थी। उसमें लिखा है कि विक्रम संवत् ११४५ में कच्छपंशी महाराज विक्रमसिंह के राज्य काल में मुनि विजयकीति के उपदेश से जैसवालवंशी पाहड़, कुकेक, सूर्पट देवधर और महीचन्द्रादि चतुर श्रावकों ने ७५० फीट लम्बे और चारसौ वर्ग फीट चौड़े अंडाकार क्षेत्र में इस विशाल मन्दिर का निर्माण कराया था और उसके सरक्षण, पूजन और जीर्णोद्धार के लिए उक्त कच्छपवशी विक्रमसिंह ने भूमिदान दिया था।
इस प्रशस्ति में कच्छपवंश के राजामों की वंश परम्परा के राजाओं के नामों का-भीमसेन, अर्जनभपति, विद्याधर, राज्यपाल, अभिमन्यु, श्रीभोज, विजयपाल और विक्रमसिंह का काव्य दृष्टि से वर्णन किया है । ऐतिहासिक दृष्टि से यह प्रशस्ति महत्वपूर्ण है। विजयकीति विक्रम की १२वीं शताब्दी के द्वितीय तृतीय चरण के विद्वान् हैं।
देवसेनगणी (सुलोचना चरिउ के कर्ता) प्रस्तुत देवसेन सेनगण के विद्वान् विमलमेन गणधर के शिष्य थे। इन्होंने अपनी गुरु परम्परा का उल्लेख करते हए लिखा है कि वीरसेन जिनसेन की परम्परा में होटलमक्त नाम के मनि हए, जो र शीश तथा अनेक शिष्यरूप परिग्रह के धारक थे। और जो सकलागम से युक्त अपरिग्रही थे। उनका शिष्य गण्डविमुक्त हमा, जिनके तपस्वी जीवन का नाम रामभद्र था। इनके शिष्य संयम के धारक निबंडिदेव थे। इन्हीं निबंडिदेव के शिष्य मलधारीदेव थे, जो शील गुण रूप रत्न के धारक थे। उपशम, क्षमा ओर संयम रूप जल के सागर, मोहरूपी महामल्ल वृक्ष के उखाड़ने के लिए गज (हाथी) के समान थे। और भव्यजन रूप कुमुद वन के लिए शशिधर (चन्द्रमा) थे । पंचाचार रूप परिग्रह के धारक, पंचसमिति और गुप्तित्रय से समद्ध, गुणी जन से वंदित और लोक में प्रसिद्ध थे। कामदेव के बाणों के प्रसार के निवारक और दुर्धर पंच महाव्रतों के धारक मलधारिदेव
१. प्रास्थानाधिपती बुधादविगुणे श्रीभोजदेवे नृपे, सभ्येप्वरसेन पडितशिरोरत्नादिषूद्यन्मदान् । योनेकान् शतशो व्यजेष्टपटुता भीष्टोद्यमो वादिनः, शास्त्रांभोनिधिपारगो भवदतः श्रोशांतिपेणो गुरुः ।। गुरुचरण सरोजाराधनावाप्तपुण्य, प्रभवदमलबुद्धिः शुद्धरत्नत्रयोस्मात् । प्रजनिविजयकोतिः सूक्तरत्नावकीणां जलधिभवमिवंतां य: प्रशस्ति व्यधत्त । (बकुण्डनेख, जैन लेख सं०भा०२५०३४०)